म्यांमार में फिर स्थापित हो लोकतंत्र
म्यांमार में फिर स्थापित हो लोकतंत्र
म्यांमार में सैन्य तख्तापलट किसी भी लोकतंत्र समर्थक के लिए अच्छी खबर नहीं हो सकती। अब सैन्य नेतृत्व इस पड़ोसी देश की कमान अपने हाथ में ले चुका है और लोकतंत्र समर्थकों के खिलाफ सेना कार्रवाई कर रही है। देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू ची और उनकी पार्टी के प्रमुख लोग गिरफ्तार कर लिए गए हैं।
सैन्य शासन किसी भी देश के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छा नहीं हो सकता। यह उस पर गहरी चोट करता है जिसके निशान मिटाने में ही दशकों लग सकते हैं। सैन्य तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाने वाली आंग सान सू ची लोकतंत्र का जाना-माना चेहरा हैं जिनके संघर्ष को सबने देखा है।हाल के वर्षों में कुछ उम्मीद जगी थी कि लंबे समय से फौजी बूटों तले कुचला गया म्यांमार लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ेगा और जनता में खुशहाली आएगी। अब एक बार फिर सेना के जनरलों ने कमान संभाल ली है और म्यांमार में लोकतंत्र किसी कोने में धकेल दिया गया है।
म्यांमार की सेना सदा ही इस जुगत में रही है कि वहां लोकतंत्र पनप नहीं सके। अगर कहीं लोकतंत्र के समर्थन में आवाज उठती है तो वहां ‘अपने आदमी’ फिट कर देती है। अब जो तख्तापलट हुआ है, उसके बाद मिंट स्वे को राष्ट्रपति नामित कर दिया गया। मिंट वे व्यक्ति हैं जो सेना के इशारे पर लोकतंत्र समर्थकों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते रहे हैं। वे सेना के समर्थन से उपराष्ट्रपति रह चुके हैं।
उन्होंने राष्ट्रपति बनते ही सैन्य जनरलों का ऋण चुकाते हुए देश की बागडोर सर्वोच्च सैन्य कमांडर वरिष्ठ जनरल मिन आंग ह्लाइंग के हाथों में दे दी। दरअसल म्यांमार में सेना कानूनी रास्ते से सत्ता में आने का रास्ता 2008 में तैयार कर चुकी है। इसके तहत अगर आपातकाल की स्थिति हो तो राष्ट्रपति देश के सैन्य कमांडर को शासन की बागडोर सुपुर्द कर सकता है।
अगर म्यांमार में सबकुछ ठीक रहता तो जनरल ह्लाइंग इसी साल जुलाई में सेवानिवृत्त हो जाते। अब वे ’पिछले दरवाजे’ से राष्ट्राध्यक्ष बन गए हैं और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं।
इन सबके बीच म्यांमार में अनिश्चितता का माहौल है। सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं। देश में आपातकाल लगा हुआ है। अब विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का संचालन सेना प्रमुख के जिम्मे है।
म्यांमार में पिछले साल नवंबर में आम चुनाव हुए थे। नतीजों में आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 80 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए। इससे आंग सान सू ची की लोकप्रियता जाहिर होती है। हालांकि, स्थानीय नेताओं के बयानों पर आधारित कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है कि उन्हें इस बात को लेकर अंदेशा था कि कुछ सैन्य जनरल लोकतंत्र की सफलता सहन नहीं कर पाएंगे और इसे पटरी से उतारने की कोशिश करेंगे।
यही हुआ; म्यांमार की सेना का तर्क है कि चुनावों में धांधली हुई है। सरकार ने इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया तो सेना के लिए आवश्यक हो गया था कि वह आकर कब्जा कर ले!
भारत के लिए म्यांमार में यह तख्तापलट चिंता का विषय है। अतीत में म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ सैन्य कार्रवाई हुई तो वे भारत में घुसपैठ कर यहां कई शहरों में फैल गए। रोहिंग्याओं पर कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं और भारत में उनकी घुसपैठ का विभिन्न संगठन विरोध कर चुके हैं। उनकी उपस्थिति को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा समझा जाता है। रोहिंग्याओं के खिलाफ सैन्य अभियान जनरल ह्लाइंग ने चलाया था।
वहीं, उत्तर-पूर्व भारत में सक्रिय कई उग्रवादी संगठनों के अड्डे म्यांमार में पाए जाते रहे हैं। ऐसे में भारत को अपनी सुरक्षा के लिए सतर्क रहना होगा। म्यांमार को भी समझना होगा कि सैन्य शासन प्रशंसनीय विकल्प नहीं है। इससे उसे गंभीर नुकसान होगा। बेहतर है कि वहां लोकतंत्र स्थापित हो।