कौन समझेगा शरणार्थियों की पीड़ा?
कौन समझेगा शरणार्थियों की पीड़ा?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी कहते हैं कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो सीएए कभी लागू नहीं करेगी। उन्होंने यह बात असम में एक चुनाव रैली को संबोधित करते हुए कही। राहुल ने अपने वादे को और पुख्ता दिखाने के लिए गमछा धारण किया जिस पर सीएए पर क्रॉस लगा हुआ था। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सीएए का विरोध या समर्थन करने के लिए स्वतंत्र हैं। क्या ही अच्छा होता अगर वे यह बयान देने से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में रहने वाले हिंदू, सिख समेत उन तमाम अल्पसंख्यकों का हाल जान लेते, खासतौर से पाकिस्तान में जहां उन्हें हर रोज उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।
बंटवारे के बाद पैदा हुए हालात में उनकी मजबूरियां थीं जो भारत नहीं आ सके। अगर उनका मन टटोलें और भरोसे में लें तो पता चलता है कि माहौल थोड़ा और अनुकूल हो जाए तो वे पाकिस्तान के जुल्म और ज्यादती के निजाम में एक पल नहीं रहना चाहेंगे। वे पाकिस्तान में अपना सबकुछ लुटाकर भारत आए हैं, तो इसलिए नहीं कि यहां टमाटर सस्ते हैं और दो वक्त की रोटी नसीब हो जाएगी। पेट भरने का इंतजाम पाकिस्तान में कर लेना कौनसा नामुमकिन काम है! वे यहां इसलिए आए हैं ताकि अपना धर्म बचा सकें, अपने पुरखों की धरती पर सुकून की सांस और आज़ादी का सवेरा देख सकें।भारत के विभिन्न शहरों में रह रहे ऐसे शरणार्थियों में कई उच्च शिक्षित हैं। पाकिस्तान में उनके पास खासी संपत्ति थी लेकिन वे सबकुछ वहां के जालिम हुक्मरानों के मुंह पर मारकर इधर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। आखिर क्यों? क्या उन्हें पक्के मकानों में रहना नापसंद है? क्या भारत में आते ही उन्हें भारी जायदाद दे दी जाएगी? अच्छा होता कि ऐसे बयान देने से पहले राहुल उन शरणार्थियों की पीड़ा जानते, उनके आंसू पोंछते, उनके घावों पर मलहम लगाते। पर राहुल ऐसा नहीं करेंगे। इससे वोटबैंक खतरे में पड़ जाएगा, सेकुलर होने का तमगा छिन जाएगा।
समझ नहीं आता कि हमारे यहां का विपक्ष यह जानने की कोशिश कब करेगा कि किस कदर कराची से लेकर क्वेटा और काबुल तक अल्पसंख्यकों का नरसंहार हुआ है। हिंदुओं की बेटियां दिन-दहाड़े अगवा कर ली जाती हैं और उन्हें वहां इंसाफ देने वाली कोई अदालत नहीं है। राहुल गांधी उन सिखों के आंसुओं में डूबे अल्फाज़ ही पढ़ लेते जो पेशावर, कंधार, हेरात, हेलमंद, गजनी में आबाद थे और तालिबान ने उनसे अपने आशियाने छीन लिए। अगर भारत उनके लिए दरवाजे बंद करेगा तो वे कहां जाएंगे? क्या राहुल गांधी उन सिखों को तालिबान के रहमो-करम पर छोड़ना चाहेंगे? दुनिया में कहीं कोई सिख मुसीबत में होगा तो वह अपने गुरुओं की धरती हिंदुस्तान से ही उम्मीद रखेगा।
वहां ऐसे ही हालात ईसाइयों के हैं। अफगानिस्तान में ईसाई हैं ही कहां? जो थोड़े रह गए हैं, वो पाकिस्तान में हैं। यहां आतंकवादी उनके आराधना स्थलों को निशाना बनाते रहते हैं और वहां की सरकार सहानुभूति जताने के लिए एक कदम भी नहीं उठाती। वे सामाजिक भेदभाव, उत्पीड़न से बचने के लिए अपने नाम भी बहुसंख्यकों से मिलते-जुलते रखते हैं। ये दबे-कुचले लोग किसी का वोटबैंक नहीं हैं, किसी को उनके जीने-मरने की फिक्र नहीं है। रहे पारसी, बौद्ध और जैन, तो उनकी तादाद उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
वहां अल्पसंख्यक हमेशा इस दहशत में रहते हैं कि कहीं कोई उन पर ईशनिंदा का झूठा मुकदमा तो नहीं करा देगा, उनके नाम पर ‘सर तन से जुदा’ का नारा तो बुलंद नहीं कर देगा, उनके आराधना स्थल तोड़ तो नहीं दिए जाएंगे, उनकी बेटियों को अगवा करके धर्म परिवर्तन तो नहीं कर दिया जाएगा, उनकी संपत्ति लूट तो नहीं ली जाएगी, कट्टरपंथियों के दबाव में सरकार कोई ऐसा कानून तो नहीं ले आएगी जो उनकी ज़िंदगी और ज्यादा मुश्किल कर दे!
बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के हालात पाकिस्तान, अफगानिस्तान की तुलना में थोड़े बेहतर हैं लेकिन वहां भी आए दिन उन पर हमले होते रहते हैं। वे कट्टरपंथियों का आसान निशाना हैं। ऐसे में वे जाएं तो जाएं कहां, किस चौखट से उम्मीद रखें, कौनसा दरवाजा खटखटाएं? काश! राहुल गांधी इन लोगों की पीड़ा जानते। सीएए महात्मा गांधी का उन लोगों से किए वादे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया कदम है जो वर्ष 1947 के बाद भी गुलामी भोग रहे हैं।