ऐसी 'उदारता' कौन दिखाएगा?

ज़िंदगीभर फ़ायदा पहुंचाने वाला ऐसा 'निवेश-विकल्प' और कहां मिलेगा?

ऐसी 'उदारता' कौन दिखाएगा?

युवा पीढ़ी में पत्र-पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने का रुझान कम होता जा रहा है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 'मन की बात' कार्यक्रम में पुस्तकालयों के महत्त्व को रेखांकित किया जाना प्रशंसनीय और प्रासंगिक है। हमारे देश में पुस्तकालयों का बहुत पुराना इतिहास है। ये ज्ञान के भंडार हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, इजराइल, जापान समेत कई साधन-संपन्न देशों में आज भी पुस्तकालयों में पढ़ने-लिखने की परंपरा है। लोग खुशी-खुशी पुस्तकालयों की सदस्यता लेते हैं और किताबें घर ले जाकर भी पढ़ते हैं। वहां ट्रेनों में लोगों को किताबें पढ़ते देखना सुखद लगता है। अब तो कई वैज्ञानिक शोध इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि जो लोग रोजाना पत्र-पत्रिकाएं और किताबें पढ़ते हैं, उनकी रचनात्मकता अच्छी होती है। वे किसी काम को ज्यादा एकाग्रचित्त होकर कर सकते हैं। वहीं, किशोरों और युवाओं का मोबाइल फोन के साथ जरूरत से ज्यादा व्यस्त होना उन्हें कई समस्याएं दे रहा है। युवा पीढ़ी में पत्र-पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने का रुझान कम होता जा रहा है। पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर भी प्रोत्साहन का अभाव है। प्राय: किताबें इसलिए पढ़ी जाती हैं, ताकि परीक्षाओं में अच्छे नंबर मिल जाएं और सरकारी नौकरी लग जाए। एक बार जब यह उद्देश्य पूरा हो जाता है तो कितने लोग हैं जो किताबें पढ़ने के लिए समय निकाल पाते हैं? स्कूली बच्चों पर भी पाठ्यक्रम का इतना दबाव होता है कि वे अन्य उपयोगी विषयों पर आधारित किताबें पढ़ने के लिए समय नहीं दे पाते। वे जब कभी पाठ्यक्रम से अलग किताब पढ़ते पाए जाते हैं तो माता-पिता कहते हैं कि ये चीजें परीक्षा में नहीं आएंगी, इनमें वक्त बर्बाद मत करो!

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जो बच्चे मोबाइल फोन और लैपटॉप पर बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं, उनके साथ कमोबेश ये समस्याएं होती हैं- एकाग्रता की कमी, इन उपकरणों को 'थोड़ा-सा' और चलाने की ज़िद करना, खराब हैंडराइटिंग, अंग्रेजी शब्दों को वॉट्सऐप के मैसेज की तरह (संक्षिप्त करके) लिखना, अंकों का हिंदी उच्चारण भूलना और लेखन में रचनात्मकता का अभाव होना। कई बच्चे, जिन्हें बीस तक पहाड़े याद थे, वे उन्हें भूल रहे हैं, क्योंकि जोड़-बाकी, गुणा-भाग सब मोबाइल फोन में कर लेते हैं। कौन दिमाग को कष्ट दे! अगर किसी कठिन शब्द का अर्थ ढूंढ़ना हो तो इंटरनेट हाजिर है। वहां एक शब्द का अर्थ बताने के लिए दर्जनों वेबसाइट हैं। हर वेबसाइट एक-एक शब्द के दर्जनभर अर्थ बताती है। किस सन्दर्भ में कौनसा अर्थ लिया जाए, यह बताने वाला कोई नहीं है! वेबसाइटों पर आकर्षक विज्ञापन भी हैं, जिन पर क्लिक करने के बाद किसी शॉपिंग वेबसाइट पर चले जाते हैं। एक शब्द का अर्थ ढूंढ़ने आए थे, एक घंटा इसी में खपा दिया। शब्दकोश कौन खरीदे, कौन पढ़े? ब्याह-शादियों, जन्मदिन की पार्टियों, पिकनिक और मेले-ठेले में लाखों रुपए खर्च करने वाले भी यह शिकायत करते मिल जाते हैं कि आजकल किताबें बहुत महंगी हो गई हैं ... हमारे ज़माने में 20 रुपए की मिलती थी, अब 50 रुपए में मिली है! मोहल्लों में चाट-पकौड़े और खानपान संबंधी चीजों की दुकानें आसानी से मिल जाती हैं। इनका अपनी जगह महत्त्व है, लेकिन कितने मोहल्ले ऐसे हैं, जहां पुस्तकालय भी हैं? कितने घर ऐसे हैं, जहां महीने का बजट बनाते समय पत्र-पत्रिकाओं और किताबों के लिए राशि निकाली जाती है? ऐसे कितने व्यक्ति हैं, जो हर महीने अपनी कमाई का एक प्रतिशत हिस्सा किताबों के लिए निकालते हैं? पेट भरने, शरीर को आराम देने, उसे सुंदर दिखाने, मनोरंजन करने के लिए इतने खर्चे किए जाते हैं; अपनी चेतना जगाने के लिए कितनी राशि खर्च करते हैं? दूसरी चीजों से तुलना करें तो पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की कीमतें आज भी बहुत कम हैं। अगर मोहल्ले के दस परिवार अपनी मासिक आय का छोटा-सा हिस्सा खर्च करने की 'उदारता' दिखाएं तो जल्द ही एक अच्छा पुस्तकालय बन सकता है, जो सबको फायदा देगा। थोड़ी-सी राशि के बावजूद ज़िंदगीभर फ़ायदा पहुंचाने वाला ऐसा 'निवेश-विकल्प' और कहां मिलेगा?

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