भारत-चीन का नया अध्याय?
भारत-चीन का नया अध्याय?
डोकलाम विवाद के बाद भारत और चीन के रिश्तों में जो बर्फ जमी थी, वह पिघलने लगी है। भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण की यात्रा के बाद अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के कार्यक्रम से यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा। पहले भी हमारे देश के बारे में चीन के रुख में नर्मी दिखी थी। दोनों देश अब अतीत की क़डवाहट को भुलाकर आगे ब़ढना चाहते हैं। इसी क़डी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की २७ व २८ अप्रैल को होने वाली चीन यात्रा और खास हो जाती है। यह अनौपचारिक शिखर वार्ता है। इसमें मोदी की अकेले राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात होगी। वैसे प्रधानमंत्री को जून में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन यानी एससीओ की बैठक में भाग लेने चीन जाना था। ऐसे में अप्रैल वाली यात्रा के निहितार्थ समझना कठिन नहीं हैं। इसके मूल में कहीं न कहीं दोनों देशों की आर्थिक चिंताएं भी हैं। दुनिया भर में जिस तरह से वाणिज्य व व्यापार को लेकर संरक्षणवादी नीति को ब़ढावा दिया जा रहा है, उसके मद्देनजर दोनों देश वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों के पक्ष में एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। दुनिया की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों देश एकजुट हों तो तस्वीर बदल सकती है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की चीन यात्रा के ठीक बाद चीन की तरफ से नाथुला के रास्ते कैलाश मानसरोवर यात्रा दोबारा शुरू करने तथा सतलुज और ब्रह्मपुत्र नदी के पानी के डाटा साझा करने की घोषणा की गई है। यह दोनों देशों के पटरी पर आते रिश्तों के संकेत हैं। भारत ने भी दलाईलामा के भारत आने की सालगिरह के मौके पर दिल्ली में होने वाले कार्यक्रम को स्थानांतरित कर चीन को संकेत दिए थे कि वह चीन की भावनाओं की कद्र करता है। जब नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग चीन के वुहान शहर में मिलेंगे तो कुछ सकारात्मक सामने आ सकता है। यह सब कुछ दशकों से जारी सीमा विवाद, पिछले साल के डोकलाम विवाद, विवादित ‘वन बेल्ट, वन रोड’’ कार्यक्रम, भारत की एनएसजी की सदस्यता में अवरोध और जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसहूद अजहर के मुद्दे पर चीन के वीटो से उठे विवाद के बाद हो रहा है। तो हमें कुछ अच्छे की उम्मीद करनी चाहिए। कहीं न कहीं भारत भी महसूस करने लगा है कि चीन से लगातार टकराव भी हमारे हित में नहीं है। शायद कुछ ऐसा ही एहसास चीन को भी होने लगा है कि एक और एक मिलकर हम ग्यारह हो सकते हैं। इस सकारात्मक नजरिए के साथ ही भारत को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आतंक की फैक्ट्री बन चुके पाकिस्तान के परम हितैषी और भारत को अपने घर में ही घेरने की रणनीति के तहत लगातार इसके प़डोसी देशों में अपनी पैठ गहरी बनाने की जुगत में भि़डे रहने वाले चीन के रवैये में अचानक आया यह बदलाव भ्रामक भी साबित हो सकता है। खास तौर पर इसलिए कि चीन ने पूर्व में भी कई बार नाथू-ला दर्रे के रास्ते से कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा की अनुमति की घोषणा के बाद ऐन मौके पर बिना भारत को सूचित किए अनुमति वापस ले ली थी।