पाखंड की साझेदारी
पाकिस्तान ट्रंप को नोबेल पुरस्कार दिलाने के लिए उनके सुर में सुर मिला रहा है
जो देश खुद अशांति और आतंकवाद का बहुत बड़ा प्रतीक है, वह शांति के गीत गा रहा है
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों का जिक्र करते हुए इन दोनों देशों की सरकारों के पाखंड की खूब पोल खोली है। अमेरिका कहने को तो लोकतंत्र का बहुत बड़ा पैरोकार है, लेकिन इसने पाकिस्तानी फौजी तानाशाहों का हमेशा समर्थन किया और उनसे फायदा उठाया है। इन दिनों रूसी तेल आयात को लेकर भारत पर टैरिफ थोपने की धमकियां देने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पाकिस्तान के उस सेना प्रमुख की पीठ थपथपा रहे हैं, जिस पर आतंकवाद को बढ़ावा देने और मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाने के बहुत गंभीर आरोप हैं। आज पाकिस्तान ट्रंप को नोबेल पुरस्कार दिलाने के लिए उनके सुर में सुर मिला रहा है। जो देश खुद अशांति और आतंकवाद का बहुत बड़ा प्रतीक है, वह शांति के गीत गा रहा है! इसने अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को पनाह दी थी। वह आतंकवादी पाकिस्तानी सैन्य अकादमी से 2 किलोमीटर से भी कम दूरी पर रह रहा था, जिसे 2 मई, 2011 को अमेरिकी नौसेना सील्स ने मार गिराया था। एस जयशंकर ने सत्य कहा है कि ‘अमेरिका और पाकिस्तान का एक-दूसरे के साथ इतिहास रहा है। उस इतिहास को नजरअंदाज करने का भी उनका इतिहास रहा है। यह पहली बार नहीं है, जब हमने ऐसी चीजें देखी हैं।' ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान की जो दुर्दशा हुई, उसके सबूत मौजूद हैं। उसके आतंकवादी ठिकानों को भारतीय मिसाइलों ने बुरी तरह ध्वस्त कर दिया था। अगर पाकिस्तान कोई लोकतांत्रिक देश होता तो अब तक मुनीर का कोर्ट मार्शल हो जाता, लेकिन वे फील्ड मार्शल बन गए। ट्रंप भी आए दिन अनर्गल बयान देकर शांति का नोबेल पुरस्कार पाना चाहते हैं। उनके झूठे दावों को भारत ने कई बार खारिज किया है।
अब ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तानी जनरल की संगति में आकर उनके मुल्क में प्रचलित इस कहावत पर बहुत गंभीरता से अमल कर रहे हैं- 'इज्जत आनी-जानी शै है, बंदा ढीठ होना चाहिए'। अमेरिका ने जनरल अय्यूब खान का समर्थन किया था। जनरल ज़िया उल हक उसके आशीर्वाद के कारण ही पाकिस्तानी अवाम की छाती पर वर्षों मूंग दलते रहे थे। जब जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की हुकूमत को उखाड़ फेंका था, तब अमेरिका ही था, जिसने उस फौजी तानाशाह पर खूब डॉलर बरसाए थे। अगर डोनाल्ड ट्रंप उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति होते तो मुशर्रफ के तख्तापलट में भी कोई 'अच्छाई' ढूंढ़ लेते। हालांकि वे कारगिल की पहाड़ियों से बुरी तरह शिकस्त खाकर लौटे मुशर्रफ से खुद के लिए नोबेल पुरस्कार के वास्ते समर्थन जरूर मांगते। वास्तव में अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों एक-दूसरे के पाखंड को भलीभांति जानते हैं, लेकिन इनके स्वार्थ इतने गहरे हैं कि खुलकर जिक्र नहीं करते। पाकिस्तान ने वर्ष 1971 में (तब पूर्वी पाकिस्तान, आज बांग्लादेश) भयंकर नरसंहार किया था। क्या अमेरिका ने आज तक किसी पाकिस्तानी जनरल के खिलाफ आवाज उठाई? पाकिस्तानी फौज बलोचिस्तान में खून-खराबा कर रही है। वह पाकिस्तान के अस्तित्व में आते ही ऐसा करने लगी थी। क्या अमेरिका ने उसके किसी भी सैन्य अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया, जबकि वह किसी अन्य देश में छोटी-सी घटना के बारे में यह बयान देकर दबाव बनाने की कोशिश करता है कि 'हम करीब से नजर रख रहे हैं'? क्या वजह है कि अमेरिका जिस दूरबीन की मदद से 'करीब से नजर' रखता है, उसके लेंस पाकिस्तान की ओर घूमते ही धुंधले पड़ जाते हैं? उसे पीओके से लेकर पाकिस्तान की जमीन पर चल रहे आतंकवादियों के ठिकाने दिखाई नहीं देते? वह कम से कम उन ठिकानों को ही देख ले, जिन्हें भारतीय सशस्त्र बलों ने तबाह कर दिया था! जहां पहले आतंकवादी साजिश रच रहे थे, वहां हमारी मिसाइलों ने 'शांति' कायम कर दी। अगर ट्रंप को किसी शांति पुरस्कार का सच्चा हकदार बनना है तो पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर ऐसी ही कार्रवाई करें।

