आर्थिक राष्ट्रवाद का मार्ग

भारत की समृद्धि और संप्रभुता के लिए ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ को अपनाना अनिवार्य है

आर्थिक राष्ट्रवाद का मार्ग

भारत के पास बहुत बड़ा बाजार है, लेकिन हमें अपनी इसी पहचान से संतुष्ट नहीं होना चाहिए

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा भारतीय उद्योग जगत से ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ को अपनाने की अपील करना अत्यंत प्रासंगिक है। किसी देश की समृद्धि के साथ ही उसकी संप्रभुता और स्वतंत्रता भी अर्थव्यवस्था पर निर्भर करती हैं। जब अंग्रेज हमारे देश में आए थे तो उनके पास न कोई मजबूत फौज थी और न बड़े घातक हथियार थे। उन्होंने षड्यंत्रपूर्वक हमारी अर्थव्यवस्था पर कब्जा किया, कच्चा माल सस्ते में लिया और नए-नए तरीकों से यहां के उद्योग-धंधों को बर्बाद किया। उसके बाद जो हुआ, वह पूरी दुनिया ने देखा। जब महात्मा गांधी स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे तो उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का पुरजोर समर्थन किया था। खुद चरखा चलाया और लोगों को आत्मनिर्भरता का मंत्र दिया। हमें उस दौर को भूलना नहीं चाहिए और न ही उन शिक्षाओं को विस्मृत करना चाहिए, जिनके मूल में हमारे पूर्वजों का बलिदान है। उपराष्ट्रपति धनखड़ ने उचित ही कहा है कि भारत की समृद्धि और संप्रभुता के लिए ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ को अपनाना अनिवार्य है। उन्होंने गैर-जरूरी वस्तुओं के आयात और कच्चे माल के निर्यात से परहेज करने की भी बात कही - ‘हमें केवल उसी वस्तु का आयात करने की जरूरत है, जो अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। इससे विदेशी मुद्रा खर्च होती है और रोजगार के अवसर भी बाहर चले जाते हैं।’ उन्होंने कच्चे माल के निर्यात के दुष्प्रभावों की ओर भारतीय उद्योग जगत का ध्यान आकर्षित किया, जिसकी आज बड़ी जरूरत है।

निस्संदेह भारत के पास बहुत बड़ा बाजार है, लेकिन हमें अपनी इसी पहचान से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। भारत को उत्पादन संबंधी गतिविधियों का भी सबसे बड़ा केंद्र बनना होगा। आज इंटरनेट सेवा संबंधी विदेशी कंपनियां भारतीय उपयोगकर्ताओं की वजह से फल-फूल रही हैं। विदेश स्थित एक कमरे में छोटा-सा दफ्तर बनाकर यूट्यूब चैनल चलाने वाले लोग हमारी वजह से महीने के लाखों रुपए कमा रहे हैं, चूंकि आज गांव-ढाणियों तक इंटरनेट सेवा पहुंच गई है। क्या ऐसे समय में भारत के पास ‘अपना’ सर्च इंजन नहीं होना चाहिए? क्या भारत के पास ‘अपने’ सोशल मीडिया व मैसेजिंग ऐप नहीं होने चाहिएं? ऐसा नहीं है कि इस संबंध में प्रयास नहीं किए गए, लेकिन उन्हें खास प्रोत्साहन नहीं मिला। वे विदेशी कंपनियों से टक्कर लेने में समर्थ नहीं हो पाए। उनका बिजनेस माॅडल ऐसा नहीं बन पाया, जो लंबी अवधि तक बाजार में टिक सके। इसका नतीजा यह हुआ कि जो ऐप कंपनियां धूमधाम से शुरू हुई थीं, बाद में उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। इसके मद्देनजर संबंधित सेवा प्रदाताओं को भरपूर तैयारी के साथ मैदान में आना होगा। चाहे इसमें कुछ समय और लग जाए, लेकिन मजबूत बुनियाद के साथ आएंगे तो उसका करिश्मा दुनिया देखेगी। इसके कुछ उत्कृष्ट उदाहरण मौजूद हैं। आज डिजिटल पेमेंट के क्षेत्र में यूपीआई का लोहा दुनिया मान रही है। इसरो ने चंद्र और सौर मिशन में सफलता की पताका फहरा दी है। इसी तरह संवाद ऐप आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की दिशा में एक उल्लेखनीय पहल है। डीआरडीओ ने इसका सिक्योरिटी टेस्ट लिया और इसे टीएएल4 के लिए क्लियर किया है। अगर विभिन्न सेवाओं के लिए इस तरह के अन्य ऐप बनाए जाएं तो इंटरनेट के भारतीयकरण में आसानी होगी। चीन और रूस ने बहुत पहले ही इस संबंध में प्रयास करने शुरू कर दिए थे। वहां ऑनलाइन सर्च, ईमेल, मैसेजिंग, शाॅपिंग ... जैसी जरूरतों के लिए स्वदेशी ऐप्स का बोलबाला है। खासकर, चीन इस बात को लेकर बेहद सजग रहता है कि उसका डेटा विदेशी कंपनियों के पास न जाए, क्योंकि इससे किसी-न-किसी रूप में दुरुपयोग की आशंका बनी रहती है। भारतवासियों को ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ का मार्ग अपनाते हुए देश को शीर्ष अर्थव्यवस्था बनाने के लिए अपने स्तर पर दृढ़ता से प्रयास करने होंगे।

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