यह कैसा किसान आंदोलन?

यह कैसा किसान आंदोलन?

राष्ट्रीय राजधानी में गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलन के नाम पर हिंसा का जो तांडव मचाया गया, उसने देश का सिर शर्म से झुकाने की कोशिश की है। देश संविधान निर्माताओं, स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण कर रहा था, राजपथ पर परेड और विभिन्न झांकियां देख विविधता में एकता के दर्शन कर रहा था।

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आयोजन संपन्न होते-होते खबर आई कि ‘किसान’ बेकाबू हो गए हैं। यह कैसा आंदोलन है जो गणतंत्र के इतने बड़े उत्सव के दिन रंग में भंग डालता है? इनकी गतिविधियां देख अब यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि किसानों के वेश में अराजक शक्तियां मनमानी करके यह संदेश देना चाहती हैं कि हम तो कानून को नहीं मानते, जो करना है कर लो।

देश में लोकतंत्र है, संविधान है, उच्चतम न्यायालय है… हमें विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार है, बशर्ते वह शांतिपूर्ण ढंग से हो, नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन नहीं करता हो। किसान आंदोलन के नाम पर हुड़दंग मचाने के लिए इकट्ठे हुए इन लोगों के इरादे किसी सूरत में लोकतंत्र समर्थक नहीं दिखते। यह देश को ब्लैकमेल करने की हरकत ज्यादा मालूम होती है।

26 जनवरी करीब आते देख सोशल मीडिया पर कई लोगों ने आशंका जतानी शुरू कर दी थी कि सरकार को इन पर कड़ी नजर रखनी चाहिए, चूंकि गणतंत्र दिवस है तो दुनियाभर के मीडिया का ध्यान दिल्ली की ओर होगा; ऐसे में ये उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जरूर कोई उत्पात मचाएंगे।

हुड़दंगियों ने इस आशंका को सच कर दिखाया। यह तांडव देखकर पिछले साल अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे के समय दिल्ली में भड़के दंगों की याद ताजा हो गई। तब सीएए विरोध के नाम पर राजधानी में जो हिंसा, आगजनी, पथराव, हत्या की घटनाएं हुईं, उनसे भारत की छवि प्रभावित हुई। ऐसे कृत्य राष्ट्रविरोधी ताकतों को मजबूत करते हैं।

अगर पिछले कुछ वर्षों में हुए विरोध प्रदर्शनों पर गौर किया जाए तो एक बात यह सामने आती है कि ये समाज के एक वर्ग को एकजुट करने का आह्वान करते हैं, वे शांतिप्रिय होने का दावा करते हैं, केंद्र पर तानाशाह होने का आरोप लगाते हैं, रास्ते रोकते हैं, खुद को लोकतंत्र का रक्षक बताते हैं, फिर हिंसा पर उतर आते हैं। जब पुलिस शांति व्यवस्था कायम करने के लिए कार्रवाई करती है तो खुद को पीड़ित के तौर पर दिखाते हैं और सहानुभूति पाने की कोशिश करते हैं।

देश में ‘बुद्धिजीवियों’ की एक जमात है जो इन कथित आंदोलनकारियों को हाथोंहाथ लेती है। वह टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर उनके पक्ष में माहौल बनाती है। वह अदालतों में उनके मुकदमे लड़ती है और उपद्रवी तत्वों को मासूम की तरह पेश करती है। फिर चाहे ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ हो या हुड़दंग मचाने वाले कथित आंदोलनकारी।

इनका एक ही मकसद है- भारत की छवि खराब की जाए, दुनिया को बताया जाए कि मोदी के शासन में यह देश असहिष्णु हो गया है जहां मानवाधिकारों का सम्मान नहीं रहा। इन ‘आंदोलनों’ में चेहरे भी लगभग एक जैसे हैं। जो सालभर पहले शाहीन बाग में मुफ्त की बिरयानी खा रहे थे, अब वे ‘किसान आंदोलन’ में काजू-पिस्ता और बर्गर का लुत्फ उठा रहे थे।

देश के हर नागरिक को यह अधिकार है कि वह सरकार द्वारा बनाए गए कृषि कानून पर सवाल करे, उसकी खामियां गिनाए, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करे, न्यायालय में चुनौती दे। केंद्र सरकार ने इनमें से कोई मार्ग बंद नहीं किया है। उसने अब तक किसान प्रतिनिधियों के साथ वार्ता कर यह साफ संकेत दिया है कि वह उनकी मांगों पर गंभीरता से विचार कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह समेत केंद्र के कई मंत्री किसानों की शंकाओं के निवारण को लेकर सकारात्मक बयान दे चुके हैं। अब तो उच्चतम न्यायालय भी दखल दे चुका है।

इन तमाम पहलुओं के बावजूद किसानों को यह पूरा अधिकार है कि उनका कोई और सवाल है तो वे उसे उठाएं और बुलंद आवाज में उठाएं, पर किसी को यह अधिकार बिल्कुल नहीं है कि वह राष्ट्रीय राजधानी में दाखिल होकर हिंसा फैलाए और शांति व्यवस्था भंग करे। इस तरह तो ये प्रदर्शनकारी लोकतंत्र और किसानहित की बातों को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। इनके खिलाफ सख्ती क्यों न बरती जाए?

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने उनके यहां कोरोना महामारी के प्रसार को देखते हुए गणतंत्र दिवस पर बतौर मेहमान शिरकत करने में असमर्थता जताई थी। अगर वे समारोह में शामिल होते तो उक्त घटना से देश की छवि पर क्या प्रभाव पड़ता? कहीं यह राष्ट्रविरोधी तत्वों की कोई साजिश तो नहीं जो हर महत्वपूर्ण अवसर पर उत्पात मचाने का बहाना ढूंढ़ती है? सुरक्षा एजेंसियों को इनका भंडाफोड़ करना चाहिए। यह पता लगाना चाहिए कि इनके लिए संसाधन कौन उपलब्ध करा रहा है।

राजधानी पर ‘धावा’ बोलने की शैली में ट्रैक्टर रैली निकालना, व्यवस्था भंग करना, अवरोधक तोड़ना, वाहनों को क्षतिग्रस्त करना, भगदड़ मचाना, पुलिसकर्मियों से भिड़ना और लालकिले पर एक खास तरह का झंडा लगाना – ये सभी लक्षण बताते हैं कि इनका किसानहितों से कोई लेनादेना नहीं है। यह गणतंत्र दिवस पर देश की गरिमा पर प्रहार है। इसकी जिम्मेदारी आयोजकों पर डालकर उत्पातियों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। हमने इस देश को खून-पसीने से सींचा है। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे हुड़दंगियों को नकेल डाले।

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