जनता की प्रतिक्रिया

अमीनी की मौत के बाद उनका गुस्सा फूट पड़ा, जो अब तक जारी है

जनता की प्रतिक्रिया

इक्कीसवीं सदी राजाओं, बादशाहों और तानाशाहों की नहीं, जनता की सदी है

ईरान के अटॉर्नी जनरल मोहम्मद जफ़र मोंताज़ेरी का यह बयान कि सरकार ने 'मोरैलिटी पुलिस को भंग करने का फैसला किया है', प्रदर्शनकारियों की बड़ी जीत है। यह पुलिस ड्रेस कोड लागू करने को लेकर बहुत ज्यादा सख्ती के लिए जानी जाती थी, जिसका नतीजा सितंबर में महसा अमीनी (22) की मौत थी। उसे सिर्फ इस आरोप में हिरासत में ले लिया गया था, क्योंकि उसकी बालों की लट दिख रही थी! युवती की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पूरे ईरान में जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे और अब तक सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है। विरोध प्रदर्शनों में बड़ी तादाद उन महिलाओं की है, जो आमतौर पर घरों में रहती हैं, सार्वजनिक जीवन में उनकी उपस्थिति बहुत कम है। 

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अमीनी की मौत के बाद उनका गुस्सा फूट पड़ा, जो अब तक जारी है। ईरान की यह पुलिस पहले भी ज़्यादती करती रही है, लेकिन उसके खिलाफ कभी ऐसी आवाज नहीं उठी। अमीनी की मौत ने एक तरह से बारूद के ढेर में चिंगारी का काम किया है। इंटरनेट की सख्त पाबंदियों वाले इस देश से ऐसी तस्वीरें बाहर आ रही हैं, जिनसे पता चलता है कि ईरान की जनता, खासतौर से घरेलू व कामकाजी महिलाएं और छात्राएं बदलाव चाहती हैं। किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि अमीनी के मौत के बाद मामला शासकों के हाथों से इस तरह बाहर निकल जाएगा। 

चूंकि ईरान अपनी सख्त सजाओं के लिए भी जाना जाता है। वहां से अक्सर फांसी दिए जाने की खबरें आती रहती हैं। रविवार को भी वहां चार लोगों को इजराइली खुफिया एजेंसी के लिए काम करने के 'अपराध' में फांसी दे दी गई। माना जा रहा था कि सैकड़ों लोगों की मौत और हजारों प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी के बाद ईरान सरकार शिकंजा कसने और समस्त देशवासियों को 'कड़ा संदेश' देने के लिए बड़ी संख्या में फांसियां दे सकती है।

हालांकि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को फांसी पर चढ़ाना बड़ा मुश्किल था, क्योंकि इससे ईरान को न केवल वैश्विक आलोचनाओं का सामना करना पड़ता, बल्कि नागरिक और भड़क उठते, जिसके परिणामस्वरूप विरोध प्रदर्शन और तेज हो जाते है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि ईरान सरकार के तेवर में नरमी आ रही है, जो कि उचित ही है। कोई भी सरकार लंबे समय तक अपने देशवासियों की नाराजगी मोल लेकर सत्ता में नहीं रह सकती। वह अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर उसे कुछ समय के लिए बलपूर्वक दबा सकती है, लेकिन जैसे ही मौका मिलता है, जनता प्रतिक्रिया करती है। 

संभवत: अपने नागरिकों के तीव्र विरोध प्रदर्शन से चीन सरकार को भी महसूस होने लगा है कि जनता को अधिक समय तक दबाकर नहीं रख सकते। उसने कोरोना वायरस-रोधी कठोर प्रतिबंधों में ढील देनी शुरू कर दी है, जो निश्चित रूप से चीनी जनता की जीत है। 

चीन सरकार वायरस नियंत्रण के लिए जिस तरह प्रतिबंधों का सहारा ले रही थी, वह अदूरदर्शितापूर्ण था। लोग पूरी तरह से अपने घरों में कैद होकर रहे और भूख से बेहाल हो गए थे। जब कभी सुरक्षा बल और प्रशासन के अधिकारी निरीक्षण करने आते तो वे उनसे अच्छे सलूक के बजाय तानाशाह जैसा रवैया दिखाते, जिसने लोगों के दिलों में विद्रोह पैदा करने का काम किया। जिस तरह उरूमकी के एक अपार्टमेंट में दर्जनभर लोग जलकर मरे, उसने नागरिकों के मन में यह बात पुख्ता कर दी कि शी जिनपिंग और उनकी 'मंडली' में शामिल नेता सिर्फ सत्ता के भूखे हैं, उन्हें आम जनता के जीवन-मरण से कोई लेना-देना नहीं है। 

इक्कीसवीं सदी राजाओं, बादशाहों और तानाशाहों की नहीं, जनता की सदी है। यह लोकतंत्र, मानवाधिकार, समानता और सहिष्णुता की सदी है। इसमें भेदभाव, अत्याचार, उत्पीड़न और तानाशाही के लिए कोई जगह नहीं है। अगर कोई शासक इन 'अस्त्रों' से जनता को दबाएगा तो उसे जनता की प्रतिक्रिया को भी झेलना होगा।

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