कांटों का ताज

कांटों का ताज

खरगे का यह कहना कि वे ‘कार्यकर्ता के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं और गांधी परिवार से विमर्श कर अच्छी चीजों पर अमल करेंगे’ से स्पष्ट है कि कांग्रेस की रीति-नीति के निर्धारण में इस परिवार का प्रभाव रहेगा


कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के उम्मीदवार मल्लिकार्जुन खरगे के बारे में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कहना कि ‘उनकी एकतरफा जीत होगी’, पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यूं भी खरगे को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के जो बयान आ रहे हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि उनकी जीत तय है। शशि थरूर मुकाबले में जरूर खड़े हैं, वे मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए बयान भी देते रहते हैं, लेकिन उनकी उम्मीदवारी प्रतीकात्मक ही ज्यादा लगती है। अगर वे मैदान से हट जाते तो खरगे के लिए रास्ता पूरी तरह साफ ही था।

खरगे का यह कहना कि वे ‘कार्यकर्ता के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं और गांधी परिवार से विमर्श कर अच्छी चीजों पर अमल करेंगे’ से स्पष्ट है कि कांग्रेस की रीति-नीति के निर्धारण में इस परिवार का प्रभाव रहेगा। खरगे या थरूर, किसी के भी निर्वाचन से कांग्रेस यह संदेश देना चाहती है कि उस पर ‘परिवारवाद’ को लेकर लगाए जा रहे आरोपों में कोई दम नहीं है।

हालांकि खरगे कांग्रेस कार्यकर्ताओं में कितना जोश फूंक पाएंगे, खासतौर से युवा मतदाताओं को कितना जोड़ पाएंगे और सबसे बड़ा सवाल यह कि भाजपा से मुकाबले में कितने कामयाब होंगे, इसके लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। अभी 2022 के पूरा होने में सिर्फ तीन महीने रह गए हैं। गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का माहौल बनना शुरू हो जाएगा। फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे बड़े राज्य बाकी हैं।

नए अध्यक्ष के सामने चुनौती होगी कि यहां कांग्रेस को सत्ता में लेकर आए और जहां सत्ता है, उसे कायम रखे। आज कांग्रेस के पास छत्तीसगढ़ और राजस्थान दो राज्य हैं। पंजाब हाथ से निकल गया है। जहां गठबंधन की सरकारें हैं, वहां उसका असर नक्कारखाने में तूती की आवाज जितना ही है। ऐसा कोई दमदार मुद्दा नहीं है, जिससे मोदी सरकार के खिलाफ मतदाता उसके पाले में आ जाएं। तो सवाल है- कांग्रेस के नए अध्यक्ष इस पार्टी की नैया कैसे पार लगाएंगे?

अगर इन राज्यों में विधानसभा चुनाव हारे तो नतीजों को कांग्रेस अध्यक्ष की क्षमता एवं योग्यता से जोड़कर देखा जाएगा। यह सर्वविदित तथ्य है कि जो पार्टी चुनाव हारती है, उसके नेताओं में भगदड़ मचती है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू होता है, असंतोष के स्वर फूटते हैं। बागी तो टिकट न मिलने पर ही आंखें दिखाना शुरू कर देते हैं। अगले साल विधानसभा चुनावों से निपटने के बाद फिर लोकसभा का महारण शुरू होगा। उसके लिए पार्टी को एकजुट रखना, जन महत्व के मुद्दे उठाना, सरकार को घेरना, नीतियों पर सवाल उठाना ... जैसा भारी-भरकम काम कांग्रेस अध्यक्ष के लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों का ताज होने जा रहा है।

अस्सी वर्षीय खरगे खुद को पार्टी का ‘आधिकारिक उम्मीदवार’ मानने से इन्कार करते हैं। उन्हें राजनीति का पांच दशकों से ज्यादा अनुभव है। निश्चित रूप से पार्टी को इसका लाभ मिलेगा। वे चुनाव लड़ने के फैसले के पीछे साथी नेतागण के ‘शब्दों’ का जिक्र करते हैं, जिनके अनुसार, राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा में से कोई भी यह चुनाव नहीं लड़ना चाहता था, इसलिए वे मैदान में उतरे।

हालांकि इस बार गांधी परिवार से किसी का अध्यक्ष बनना खुद इस पार्टी को आलोचकों के निशाने पर ले आता। पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद अध्यक्ष पद छोड़कर गए राहुल गांधी को ‘मनाने’ में कांग्रेस नेताओं ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। उसके बाद सोनिया गांधी ने ही अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी ले ली। इससे भाजपा को फिर मौका मिल गया। उसने कांग्रेस पर ‘परिवारवाद’ को लेकर खूब शब्दबाण छोड़े।

अब कांग्रेस इन आरोपों से मुक्त होना चाहती है। वह दिखाना चाहती है कि उसके यहां लोकतंत्र कायम है। चुनावी मुकाबले से हटे अशोक गहलोत हों या दिग्विजय सिंह, अथवा मौजूदा उम्मीदवार खरगे, हर कोई चाहता है कि वह गांधी परिवार के प्रति नरम रुख रखे, क्योंकि पद पर रहने के लिए ऐसा जरूरी है। फिर चाहे वह मुख्यमंत्री पद हो या अध्यक्ष पद या कोई और पद।

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