दो नावों की सवारी

दो नावों की सवारी

क्या अमेरिका को मालूम नहीं कि वैश्विक आतंकवाद का कारखाना कहां है?


चीन और अमेरिका ने एक बार फिर अपना असल चेहरा दिखा दिया। एक ओर जहां चीन ने संयुक्त राष्ट्र में लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी शाहिद महमूद को वैश्विक आतंकवादियों की सूची में डाले जाने के प्रस्ताव को बाधित कर दिया, वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का प्रशासन कह रहा है कि सभी क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवादी खतरों को खत्म करने के लिए पाकिस्तान की ओर से सहयोग की उम्मीद है। 

यह इन दोनों देशों की पाखंड-पद्धति है, जिनके मूल में अपने स्वार्थ हैं। ये चाहते हैं कि भारत के सिर पर आतंकवाद का खंजर हमेशा लटका रहे और उसकी जनता परेशान रहे। चीन ने तो जिस आतंकवादी के खिलाफ कार्रवाई में अड़ंगा डाला, उसका प्रस्ताव भारत और अमेरिका की ओर से था। यहां अमेरिका खुद को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्वकर्ता दिखाना चाहता है। जबकि उसके विदेश मंत्रालय के ये शब्द बड़े मासूमाना अंदाज में कहे गए मालूम होते हैं कि ‘कुछ देशों ने पाकिस्तान की तरह आतंकवाद का सामना किया है और वे क्षेत्रीय अस्थिरता व क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरों, जैसे टीटीपी का मुकाबला करने में साझा रुचि रखते है।’ 

क्या अमेरिका को मालूम नहीं कि वैश्विक आतंकवाद का कारखाना कहां है, लादेन कहां पाया गया, आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर कहां चल रहे हैं और नियंत्रण रेखा पार कर जम्मू-कश्मीर में दाखिल होने वाले आतंकवादी कहां से आ रहे हैं? एक तरह से अमेरिका आग लगाने वाले के साथ है और आग बुझाने वाले के साथ भी है! 

उसे स्पष्ट करना चाहिए कि वह पूरे मन से किसका साथ दे रहा है। अगर लश्कर आतंकवादी के खिलाफ प्रस्ताव लाकर आतंकवाद को जड़ से खत्म करने का इरादा कर चुका है तो दो नावों की सवारी बंद करनी होगी। या तो उसे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का दावा छोड़ना चाहिए या फिर ठोस कार्रवाई करते हुए वहां चोट करे, जहां खूंखार आतंकवादी दनदना रहे हैं। जरूरी नहीं कि इसके लिए वह सैन्य कार्रवाई करे, उसे पाकिस्तान को सहायता देनी बंद करनी होगी।

चीन ने संरा सुरक्षा परिषद की ‘1267 अल कायदा प्रतिबंध समिति’ के तहत महमूद को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने की कोशिशों में रुकावट डाली तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उसने वैश्विक संगठन में किसी आतंकवादी को प्रतिबंधित सूची में डालने की कोशिशों में चार महीनों में चौथी बार रुकावट डाली है। चीन की नीति साफ है कि वह खुद की जमीन पर आतंकवादी (जो कालांतर में उसके लिए ही मुसीबत बन सकते हैं) को पलने नहीं देगा, लेकिन जो आतंकवादी भारत समेत पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनें, उनका रक्षक बनकर खड़ा रहेगा। 

यह घटना ऐसे समय में हुई है, जब 26/11 हमलों की बरसी आने वाली है। उसमें अमेरिका ने भी अपने नागरिक गंवाए थे, लेकिन दुखद है कि यही देश आतंकी खतरों को खत्म करने के लिए पाकिस्तान से सहयोग की उम्मीद भी कर रहा है! घोर आश्चर्य! क्या बिल्ली दूध की रखवाली करेगी? क्या डकैतों के भरोसे बैंक सुरक्षित रहेंगे? अमेरिका को कम से कम अपने उन नागरिकों का तो ख़याल करना चाहिए, जो 26/11 में पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने थे। स्पष्ट है कि अमेरिका दोहरा रवैया अपना रहा है। एक तरफ वह रोग बढ़ाने के लिए अखाद्य पदार्थ दे रहा है, दूसरी तरफ वह औषधि देकर हितैषी होने का नाटक भी कर रहा है। न रोग मिटेगा, न स्वास्थ्य-लाभ होगा। यही अमेरिका चाहता है। 

वह पाकिस्तान का हितचिंतक बना रहकर उसके आतंकवाद को खाद-पानी देता रहेगा। साथ ही लोकदिखावे के लिए भारत की हां में हां मिलाकर अपने हथियार बेचता रहेगा। अमेरिका की मंशा आतंकवाद खत्म करने की नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्य ही कहते हैं कि हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। भारत को अपनी समस्याएं स्वयं हल करने के लिए इतनी क्षमता पैदा करनी होगी कि वह आतंकवाद को नष्ट कर सके और चीन की दुष्टता का कठोरता से जवाब दे सके।

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