शिक्षा के कारखाने

शिक्षा के कारखाने

कहने को यह आधुनिक शिक्षा है, लेकिन दशकों पुराना ढर्रा चला आ रहा है


प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा द्वारा एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में यह कहना कि ‘उच्च शिक्षण संस्थान शिक्षा के कारखानों में बदलते जा रहे हैं और वे सामाजिक प्रासंगिकता खो रहे हैं’ - पर चिंतन की आवश्यकता है। प्रधान न्यायाधीश ने वही कहा है, जो हमारे शिक्षण तंत्र का कड़वा सच है। जिस आधुनिक शिक्षा के नाम का डंका पीटा जा रहा है, उससे न तो हम बेहतरीन नागरिक तैयार कर पा रहे हैं और न ही सबके लिए पर्याप्त रोजगार की व्यवस्था कर पा रहे हैं।

एक श्रेष्ठ शिक्षण तंत्र में ये दोनों विशेषताएं होनी ही चाहिएं। कहने को यह आधुनिक शिक्षा है, लेकिन दशकों पुराना ढर्रा चला आ रहा है। विद्यार्थियों के स्वाभाविक कौशल का विकास हो ही नहीं पाता, वहां रटने और तथ्यों को याद करने पर जोर है। उस पर भी पढ़ाने का तरीका बहुत उबाऊ और बोझिल है। एक विद्यार्थी के कोमल मन पर ढेर सारे विषयों की बौछार से उसका स्वाभाविक कौशल कहीं दब जाता है।

अक्सर देखने में आता है कि जो बच्चा पेंटिंग में अच्छा होता है, उसे बड़ा होकर मजबूरीवश जीके रटना पड़ता है। जो अंतरिक्ष विज्ञान में अनुसंधान करना चाहता है, उसे बेमन से अन्य विषय लेना पड़ता है। जो डॉक्टर बनना चाहता है, उसे अपने गांव के आसपास विज्ञान विषय के उच्च माध्यमिक विद्यालय नहीं मिलते। ऐसी अनेक विसंगतियां इस तंत्र में समाई हुई हैं, बल्कि वे इसका हिस्सा बन चुकी हैं। शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि साधारण आर्थिक स्थिति वाले कई परिवार तो बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने के बजाय उनकी शादी का फैसला ले लेते हैं।

प्रधान न्यायाधीश ने यह भी उचित कहा है कि ‘पाठ्यक्रम उपनिवेशकाल जैसा है।’ उसका पूरा जोर पेट भरने पर है। तथापि यह उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है। बहुत कम विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जिनके सपने पूरे हो पाते हैं। विज्ञान, टेक्नोलॉजी और प्रबंधन के इतने शिक्षण संस्थान होने के बावजूद हमारे पास ऐपल, गूगल, फेसबुक, ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट जैसी अपनी कंपनियां नहीं हैं। भले ही भारतीय प्रतिभाएं विदेश जाकर इनका संचालन करती हों, लेकिन अपने देश में रहकर वे ऐसा क्यों नहीं कर पातीं ... इस पर विचार करना आवश्यक है।

उच्च शिक्षण संस्थान श्रेष्ठ नागरिक गढ़ने के केंद्र होने चाहिएं। जो यहां से निकले, उसमें अनुशासन, नैतिकता, ईमानदारी जैसे सद्गुण स्वाभाविक रूप होने चाहिएं। दुःखद है कि ऐसा नहीं हो रहा। आज तो उच्च डिग्रीधारी और प्रशासन के बड़े पदों पर पहुंचने के बाद भी कई अधिकारी रिश्वत लेते धर लिए जाते हैं। मोटा वेतन पाने के बावजूद धन की भूख नहीं मिटती। वे नैतिकता का उपदेश दूसरों को देते हैं, स्वयं उसका पालन नहीं करते।

नैतिकता ही वह कसौटी है, जो संत को शैतान से अलग करती है। नैतिकताविहीन ज्ञान खतरनाक है। वह तो शैतान के पास भी हो सकता है। यह कोरा ज्ञान मनुष्य को मर्यादाहीन बना देता है, जिसके परिणाम परिलक्षित हो रहे हैं। इसलिए उच्च शिक्षण संस्थान किताबी ज्ञान के कारखाने नहीं, मनुष्य में देवत्व उत्पन्न करने वाले विद्या मंदिर हों।

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