भगवान ऐसे भयावह संकटों से सबको बचाए

भगवान ऐसे भयावह संकटों से सबको बचाए

पढ़िए, आज के परिदृश्य पर आधारित यह प्रासंगिक आलेख।

श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत राष्ट्रमत

बेंगलूरु। आज अनायास ही मुझे भोपाल गैस ट्रैजिडी की याद आ गई। 3 और 4 दिसम्बर 1984 की दरम्यानी रात में भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से जहरीली गैस निकली और भोपाल की सड़कों पर लाशों के ढेर लग गए। आधिकारिक रूप से 3700 से अधिक निर्दोष लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी। हालांकि 16 हजार से ज्यादा लोगों के मरने का दावा किया गया था और साढे पांच लाख लोग बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। वे सब मरे तो नहीं लेकिन उनका जिंदा रहना भी आसान नहीं रह गया। वह संकट भारत के केवल एक शहर, भोपाल के वासियों पर आया था परंतु पूरा देश हिल गया था।

देश ने पहली बार ऐसा भयावह दृश्य देखा था कि सड़कों पर शव ही शव बिखरे थे और मनुष्य कुछ नहीं कर पाया था। देशभर से पीड़ितों की मदद के लिए असंख्य हाथ बढे। कर्नाटक मारवाड़ी यूथ फैडरेशन ने भी बेंगलूरु से मदद के लिए अपनी एक छोटी टीम भेजने का फैसला किया जिसका नेतृत्व मुझे सौंपा गया था। मेरे साथ थे मेरे साथी कनकराज मेहता (दुर्भाग्यवश वे आज हमारे बीच नहीं हैं), महेन्द्र के. जैन तथा बेंगलूरु के एक उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता टीवी रामराजू, जिनका फेडरेशन से कोई आफिशियल लगाव नहीं था। वे कमायूफे के सेवाकार्यों से प्रभावित होकर हमारे साथ निकल लिए थे।

उस समय कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे कांग्रेस के अर्जुनसिंह (अब स्व.)। हम जब भोपाल रेलवे स्टेशन पर उतरे तो स्टेशन पर पैर रखने को एक इंच जगह नहीं थी। ट्रेन से उतरने में भी हमें नानी याद आ गई। हम अपने डिब्बे से उतरने वाले केवल चार लोग थे और चढने वाले सैंकड़ों। अफरातफरी का माहौल था। हर कोई दहशत में दिखाई दे रहा था। ट्रेन में हमारे डिब्बे में जो लोग थे और उनसे बातों ही बातों में जब हमारा परिचय हुआ और उन्हें पता चला कि हम भोपालवासियों की मदद के लिए जा रहे हैं तो उन्होंने कहा, तुम लड़कों के मां बाप भी कैसे हैं, जब भोपाल से हर व्यक्ति भाग रहा है तो तुम्हें सेवा के लिए उस शहर में भेज दिया जहां अभी खतरा बना हुआ है। भोपाल में उसी फैक्ट्री से जहरीली गैस किसी भी समय फिर निकल सकती है। तुम लोग मत उतरो। मुख्यमंत्री सहायता कोष में पैसा भेज देना। हमारे साथ दिल्ली चलो और कोई दूसरी ट्रेन पकड़कर बेंगलूरु चले जाना।

वह शायद 9 या 10 दिसंबर का दिन होगा। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। हम जैसे तैसे भोपाल स्थित यूथ हास्टल पहुंचे (ताकि होटल का खर्चा बचाया जा सके) जो सरकारी बिल्डिंग थी और पूरी तरह खाली थी। केवल चौकीदार और हम चार। वह भी हमारे आकस्मिक आगमन पर आश्चर्य कर रहा था। पहुंचते ही हम अपने काम पर लग गए। मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह से मिले और उनको बताया कि हम हमारे मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े का आशीर्वाद लेकर यहां आए हैं।

मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह बड़े प्रसन्न हुए कि दूर कर्नाटक से मारवाड़ियों की एक समाजसेवी संस्था गैसप्रभावितों की मदद के लिए मध्यप्रदेश तक आ पहुंची। उनके निर्देशानुसार हम तत्कालीन मुख्यसचिव से मिले और हमें भोपाल के ज्यादा प्रभावित इलाकों में ब्रेड, बिस्किट्स आदि लाकर वितरित करने का दायित्व दिया गया। हमारे साथी महेन्द्र जैन और रामराजू को इन्दौर भेजा गया। वहां माडर्न ब्रेड फैक्ट्री से ब्रेड खरीद कर दो बड़े टैम्पो भरवाकर वे रातोंरात भोपाल आए। सुबह से हमें काम शुरू करना था। मैं और कनकराज मेहता ने वितरण संबंधी तैयारियां कीं।

भोपाल से अंग्रेजी का एक अखबार प्रकाशित होता था ‘हितवाद’, हम दोनों उनकी प्रेस गए। (यह वही अखबार है जिसके मालिक रहे, वर्तमान में तमिलनाडु के राज्यपाल हैं), उनके संपादक से हमने सलाह मशविरा किया। एक हिंदी दैनिक निकलता था, दैनिक आलोक। उसका कार्यालय शहर के बीचोंबीच था, जैसे बेंगलूरु का चिकपेट एरिया है। उस अखबार के मालिक थे शर्माजी (पूरा नाम तो अभी याद नहीं है)। वे बुजुर्ग थे परंतु हिम्मत वाले और सहयोगी स्वभाव के।उन्होंने हमें खूब सहयोग किया, हमारा मार्गदर्शन किया। हमारे लिए अनजान शहर में सेवाकार्य करना और स्वयं सुरक्षित भी रहना, इन प्रभावशाली लोगों के कारण थोड़ा आसान हो गया।

आज उस घटना का जिक्र मैं यहां क्यों करना चाहता हूं क्योंकि मुझे कुछ प्रासंगिकता लगी और कुछ कुछ स्थितियां भी तुलनात्मक दृष्टि से उल्लेखनीय लगीं। आज पूरे देश में कोरोना के कारण लाकडाउन है। केवल किसी शहर विशेष या क्षेत्र विशेष पर संकट नहीं है। देशभर में हर कोई इस समय संकट में है। पीड़ित भी उन्हीं में से है, उन्हीं में से कोई हो सकता है और मददगार भी उन्हीं में से हैं। बाहर से आकर कोई मदद नहीं कर सकता। बाहरी देश से भी नहीं। जरूरतमंद भी हम ही हैं और मदद करने वाले भी। आज व्यक्ति घर से बाहर निकलने को तड़प रहा है परंतु संक्रमण के खतरे के कारण उसे निकलने नहीं दिया जा रहा।

भोपाल गैस ट्रैजिडी के समय घर से निकलने के लिए वहां के निवासियों को कोई रोक नहीं थी, बल्कि डर के मारे कोई निकलना ही नहीं चाहता था। डर था कि पता नहीं कब उसी फैक्ट्री से और गैस निकलने लगे। इस समय पूरे देश में बाजार बंद हैं क्योंकि सबके भले के लिए, दुकानों को खोलने की छूट नहीं है। उस समय भोपाल में भी सब बाजार बंद थे परंतु उनको रोका किसी ने नहीं था, दुकानदारों ने दुकानें खुद बंद की थीं। डर के मारे लोग भोपाल छोड़कर आसपास के शहरों में अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे। प्रशासन ने घोषणा की थी कि 14 दिसंबर को आपरेशन फेथ को अंजाम दिया जाएगा जिसमें जो बचीखुची गैस है उसे सावधानी से निष्प्रभावी किया जाएगा। प्रशासन लोगों में विश्वास पैदा कर रहा था कि भोपालवासी सुरक्षित हैं परंतु उनमें आशंका बनी हुई थी। सरकार ने नाम भी “आपरेशन फेथ” रखा था। आटोरिक्शा पर लाउडस्पीकर लगाकर घोषणा की जा रही थी परंतु भोपाल हर पल, हर क्षण खाली हो रहा था। सब 14 दिसंबर के पहले भाग जाना चाहते थे।

भोपाल में बच गए थे वे, जो या तो अपना घर, अपनी दुकान लूट या चोरी की आशंका से, छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते थे या फिर भोपाल के आसपास कहीं किसी शहर में जाने की स्थिति में नहीं थे। हमने देखा बहुत से व्यापारी दुकानों और घरों पर ताले जड़कर दूसरे शहर जा चुके थे। कुछ घरों में वयोवृद्ध लोग घर की रखवाली कर रहे थे, बाकी परिजन जा चुके थे। दुकानें, होटल सब बंद। कहीं कहीं चाय, कचौड़ी बेचने वाले अपने परिवार को पालने के लिए कमाई करने को बाध्य थे। कुछ पान की गुमटियां भी खुली थीं। माहौल तो कर्फ्यू जैसा ही था। सरकार घोषणा करवा रही थी कि प्रशासन पर भरोसा करें, कहीं न जाएं परंतु किसी को भी रोक नहीं रही थी। जगह जगह राहत शिविर लग गए थे। अनेक संस्थाएं प्रशासन के साथ सेवा में जुट गई थीं।

हमने भी बताए गए क्षेत्रों में ब्रेड और बिस्किट वितरण प्रारंभ किया। हमने देखा कि एक एक ब्रेड पैकेट के लिए कैसे खातेपीते घरों के लोग भी लाइन लगाकर खड़े थे। निर्धनों की तो पूछो मत। उनको तो सामान्य दिनों में भी ब्रेड बिस्किट कहां नसीब होते हैं। ब्रेड का पैकेट मिलने पर उनकी आंखों में जो चमक दिखती थी, वह देख हमारी आंखें नम हो जाती थीं। पता लगता कि दूध के पैकेट बांटने के लिए कोई टैम्पो आ गया है तो आधे लोग इधर से उधर दौड़ जाते थे कि ब्रेड से भी ज्यादा जरूरी दूध है। सब घरों में बच्चे भी तो होते हैं। हमारा टैम्पो दूध के वितरण खत्म होने का इंतजार करता। फिर लोग ब्रेड वाली लाइन में लौट आते। हम बड़ी विनम्रता से वितरण कर अगले गंतव्य की ओर बढते थे। हमारे खुद के खाने का कोई ठिकाना नहीं था। मेरे एक निकट के रिश्तेदार भोपाल में थे परसराम शर्माजी (अब स्व.)। हमने दो तीन बार उनके यहां खाना खाया।

एक दो बार आलोक अखबार वाले शर्माजी के साथ भोजन किया। एक दिन एक जैन परिवार के दादा दादी ने इतनी आत्मीयता से हम पर वात्सल्य उंडेला कि उनका आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा। हम उन पर बोझ नहीं बनना चाहते थे परंतु उन्होंने ऐसे मार्मिक शब्द कहे कि उनको हम इन्कार नहीं कर सके। वे हमें मंदिर में मिल गए थे, जहां हम भी दर्शन करने गए थे। वहीं हम मानो उनके परिवार के सदस्य बन चुके थे। सच बताता हूं, हम वहां शायद पांच छह दिन रहे। हमें वहां कभी अपने खाने पीने का ध्यान ही नहीं आया। कुछ मिल गया तो खा लिया, नहीं मिला तो चाय, बिस्किट। शायद स्वयंसेवकों के साथ ऐसा ही होता होगा।

पीड़ित किसी भी संकट से हो, जब उसकी मदद करने के लिए कोई स्वेच्छा से आगे आता है तो यह मान लेना चाहिए कि उस सेवाभावी इंसान में कुछ खास है, इसलिए वह खुद चलकर पीड़ित तक पहुंचा है। आज कोरोना वायरस के कारण जो हालात बने हैं उसमें उन चिकित्सकों के बारे में सोचिए जो अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोनाग्रस्त रोगियों का इलाज कर रहे हैं और कुछ ने तो अपनी जान गंवा भी दी है। उनके भी तो परिवारजन हैं। पुलिसकर्मियों, सफाईकर्मियों और स्वास्थ्य सेवाकर्मियों के बारे में सोचिए कि उनके लिए उनके परिवार से भी ज्यादा हम देशवासी कितने महत्वपूर्ण हैं कि वे अपने परिजनों को छोड़कर हमारी किसी न किसी सेवा में लगे हैं। दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो जानबूझकर वायरस को फैलाने का दुष्कर्म करते पाये गए हैं। सरकार और प्रशासन के दिशानिर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए कोरोना को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयासों पर पानी फेरने में लगे हैं।

इस दुनिया में सब तरह के लोग हैं। अच्छे भी और बुरे भी। जिनका जैसा स्वभाव है, उसका बर्ताव वैसा ही होगा। मुझे लगता है कम से कम कोरोना के इस संकट से सबको कुछ न कुछ सीखना ही चाहिए। इस समय धन, संपदा, गाड़ी-घोड़ा, रेल हवाईजहाज, सैर सपाटा सब व्यर्थ दिखाई दे रहे हैं। अपनी मेहनत से कमाने वाले दिहाड़ी मजदूरों को भी दो वक्त के भोजन के लिए किसी का मुंह ताकना पड़ता है। इसलिए जिनके पास कुछ है, जो समर्थ हैं उन्हें आगे बढकर उनकी मदल करनी चाहिए जो इस समय मुसीबत में हैं, जिनके खाने के भी लाले पड़े हुए हैं। जिन लोगों ने उदारता से दान दिया है उनके लिए हमारे हृदय में विशेष सम्मान होना चाहिए। जो समय और श्रम दे रहे हैं, उन कार्यकर्ताओं का ऋणी होना चाहिए। सब लोग जिस शक्ति से संघर्ष के लिए जुटे हैं, जीत तो होनी ही है परंतु उन दुष्टों की कारस्तानी भी बार बार मन को खिन्न करती रहेगी जो इस संघर्ष में साथ देने के बजाय दुश्मन बनकर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

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