मैकाले की सोच को विदा करें

कई लोग पश्चिम के हर दोषपूर्ण विचार को सही मानते हैं

मैकाले की सोच को विदा करें

मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने रट्टू तोता बनाने पर जोर दिया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थॉमस मैकाले द्वारा भारत पर थोपी गई गुलामी की मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए जो आह्वान किया है, वह अत्यंत प्रासंगिक है। अगर यह काम आज़ादी के तुरंत बाद हो जाता तो आज देशवासियों का जीवन बहुत खुशहाल होता। मैकाले वह शख्स था, जिसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें मजबूत करने के लिए ऐसा षड्यंत्र रचा था, जिसके शिकार बड़े-बड़े बुद्धिजीवी हो गए। उसने शिक्षा प्रणाली में सुधार के नाम पर ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा दिया, जो समस्याओं का समाधान नहीं करते, बल्कि नई समस्याएं पैदा करते हैं। उसके निर्देश पर जो पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया गया, उसका निष्कर्ष यह निकलता है कि अंग्रेजों ने गुलामी थोपकर बड़ा उपकार किया था। आज भी कई लोग यह कहते मिल जाएंगे- 'अगर अंग्रेज भारत में नहीं आते तो यहां न बिजली आती, न ट्रेन आती और न ही वैज्ञानिक विकास होता।' यह कैसी सोच है? क्या जिन देशों पर कभी अंग्रेजों ने राज नहीं किया, वहां आज बिजली नहीं है, ट्रेन नहीं है? क्या वहां वैज्ञानिक विकास नहीं हुआ? यह मैकाले द्वारा थोपी गई मानसिकता का नतीजा है कि कई लोग पश्चिम के हर दोषपूर्ण विचार को सही मानते हैं। उन्हें लगता है कि पश्चिम के अंधानुकरण का मतलब है- विकास। प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों का ज्ञान प्रदान करने के साथ स्वतंत्र चिंतन करना सिखाया जाता था। शास्त्रार्थ की परंपरा को बढ़ावा दिया जाता था। मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने रट्टू तोता बनाने पर जोर दिया। उसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पोषण करने वाले शासकों और अधिकारियों को महान साबित करने के लिए पूरा जोर लगाया था।

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प्रख्यात विचारक स्व. राजीव दीक्षित ने अपने कई व्याख्यानों में मैकाले और उसके चेलों का कच्चा चिट्ठा खोला था। भारत में जिस तरह संयुक्त परिवारों को नष्ट किया गया, पुश्तैनी धंधों को तबाह किया गया, गांवों को उजाड़कर पलायनवाद को प्रोत्साहन दिया गया, सात्विक खानपान की जगह तामसिक पदार्थों का महिमामंडन किया गया - इन सबके तार मैकाले द्वारा थोपी गई सोच से मिलते हैं। भारत के ऋषि-मुनि दूरदर्शी थे। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के लिए जो सिद्धांत दिए थे, उनके पीछे गहरी वैज्ञानिक सोच थी। उनका सही-सही पालन करने वाला व्यक्ति सुखी रहता है। उसके जीवन में रोग, दु:ख, अभाव आदि कम ही आते हैं। उदाहरण के लिए, ऋषियों ने पशुधन रखने पर बहुत जोर दिया था। जो परिवार पशुपालन करता है, उसे सूर्योदय से पहले उठना ही पड़ता है। उसके सदस्यों को शुद्ध दूध-घी मिलता है। खेत को गोबर से बनी खाद मिलती है। इससे मिट्टी उपजाऊ रहती है। उस मिट्टी में उपजा अन्न स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। पूरा परिवार किसी-न-किसी रूप में लाभान्वित होता है। ज्यादा पशुधन रखने वाले लोगों के पास लड़ाई-झगड़े और अनावश्यक गतिविधियों के लिए समय ही नहीं होता। मैकाले ने लोगों में ऐसी सोच को बढ़ावा दिया कि 'पशुपालन कोई काम नहीं है, गोबर एक गंदगी है! युवाओं को अपना भविष्य खेत-खलिहान और पशुधन को बेचकर शहर की नौकरी में तलाशना चाहिए। अगर प्रकृति के विरुद्ध दिनचर्या अपनाएंगे और तामसिक आहार करेंगे तो आधुनिक कहलाएंगे!' इसका नतीजा सबके सामने है। देश में हर साल नई-नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। पहले, भारत में लोग 'तलाक' शब्द बोलना भी पाप समझते थे। आज परिवार टूटते जा रहे हैं। इन सभी समस्याओं का समाधान भारत के ऋषि-मुनियों के चिंतन एवं दर्शन में निहित है। अंग्रेज चले गए। अब मैकाले की सोच को भी विदा करें।

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