समता और पोषण

समता और पोषण

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में देश में आर्थिक विषमता की खाई और चौ़डी ही हुई है। करो़डपतियों की संख्या ब़ढी है।इस समृद्ध तबके ने ही इन नीतियों का ज्यादा लाभ उठाया है क्योंकि आर्थिक व्यवहार में सरकारों की भूमिका कम हुई है। हाल के दिनों में विश्व बैंक द्वारा जारी मानव पूंजी सूचकांक कीपहली रिपोर्ट इसी सच को उजागर करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के जीवन की प्रत्याशा, सेहत व शिक्षा के मापदंडों पर आधारित १५७ देशों की सूची में भारत का स्थान ११५वां है। हालांकि सरकार ने यह कहकर रिपोर्ट को नकारा है कि इसमें मानव पूंजी को समृद्ध करने के सरकार के प्रयासों को नजरअंदाज किया गया, जिसमें समग्र शिक्षा अभियान, सेहत के लिये आयुष्मान भारत योजना, महिला सशक्तीकरण की उज्ज्वला योजना तथा प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। नि:संदेह यह तथ्य अनजाना नहीं है कि विश्व बैंक के आंक़डों में विकसित देशों के भी अपने लक्ष्य होते हैं्। मगर इस तरह की रिपोर्ट हमें आत्ममंथन का मौका जरूर देती है कि तमाम विकास के दावों के बीच विषमता की खाई पाटी क्यों नहीं जा रही है। दुनिया की तेज गति से ब़ढने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का लाभ आम आदमी को क्यों नहीं मिल पा रहा है। इन आंक़डों के आधार पर गरीबी उन्मूलन व मानव पूंजी संवर्धन के कार्यक्रमों के मूल्यांकन की जरूरत तो महसूस होती ही है, जिस पर गंभीर मंथन की जरूरत है।मगर इस सत्य को स्वीकारने में परहेज नहीं होना चाहिए कि देश के समक्ष मानव पूंजी संवर्धन की जितनी ब़डी चुनौती है, उसके मुकाबले प्रयास नाकाफी हैं। इन नीतियों के क्रियान्वयन का तंत्र भ्रष्टाचार से ग्रस्त है, जिसके चलते वास्तविक जरूरतमंदों तक उसका लाभ नहीं पहुंचता। नि:संदेह सरकारी योजनाओं के जरिये जरूरतमंदों तक मदद पहुंचाने की योजनाओं के ऑनलाइन होने से ब़डे पैमाने पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है, मगर अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। समता का समाज विकसित हो, इसके लिये देश के संपन्न वर्ग को आगे आना चाहिए्। समाज के जागरूक तबके का फर्ज बनता है कि मानव पूंजी संवर्धन कार्यक्रमों का पारदर्शी तरीके से क्रियान्वयन हो सके, इस पर पैनी नजर रखी जाये। अन्यथा लगातार ब़ढती आर्थिक असमानता आखिरकार सामाजिक असंतोष का कारण बनती है। देश के विभिन्न इलाकों में होने वाले हिंसक प्रतिरोध इसी असमानता की परिणति के रूप में देखे जा सकते हैं्। देश के नीति-नियंताओं को इस बात का एहसास होना चाहिए कि ऊंची विकास दर के लक्ष्य तब तक हासिल नहीं किये जा सकते जब तक कि देश के मानव विकास सूचकांक में सुधार नहीं लाया जाता। नि:संदेह देश में बाल मृत्यु दर में कमी आई है। कुपोषण के आंक़डों में भी सुधार हुआ है मगर इन परिणामों से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। देश में स्वास्थ्य सेवाओं का तंत्र सुधारने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में वृद्धि करके ही आयुष्मान भारत के लक्ष्य हासिल किये जा सकते हैं्। इस दिशा में सरकार, संपन्न वर्ग और समाज के हर व्यक्ति की साझेदारी जरूरी है।

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