आर्थिक असमानता दूर करें
भारतीय सीईओ आर्थिक विकास के प्रति आश्वस्त हैं

कोरोना महामारी ने लाखों परिवारों का बजट बिगाड़ दिया था
निवेश योजनाओं, आर्थिक वृद्धि पर सीईओ के विश्वास के मामले में शीर्ष देशों में भारत के स्थान बनाने संबंधी पीडब्ल्यूसी का वैश्विक सर्वेक्षण उत्साहजनक है। भारत की अर्थव्यवस्था के साथ उभरता मध्यम वर्ग, क्रय क्षमता में बढ़ोतरी और डिजिटल लेनदेन जैसे कई बिंदु जुड़े हैं, जो विश्व का हम पर भरोसा मजबूत करते हैं। इसी का नतीजा है कि 10 में से 9 भारतीय सीईओ आर्थिक विकास के प्रति आश्वस्त हैं, क्योंकि वे कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने और एआई को जारी रखने की योजना बना रहे हैं। हमें इसके साथ आर्थिक असमानता के मुद्दे की ओर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि समाज में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती यह खाई कालांतर में कई गंभीर समस्याओं को जन्म देती है। अधिकार समूह ‘ऑक्सफैम इंटरनेशनल’ की वैश्विक असमानता पर जारी रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में अरबपतियों की संपत्ति साल 2024 में 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर बढ़कर 15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गई है। यह साल 2023 की तुलना में तीन गुना ज्यादा है! भारत में सरकार की काफी कोशिशों के बावजूद कई इलाकों में बहुत गरीबी है। नि:शुल्क राशन मिलने से करोड़ों लोगों को फायदा जरूर हो रहा है, लेकिन यह स्थायी समाधान नहीं है। गरीबी दूर करने के लिए सरकारी मदद एक हद तक कारगर साबित हो सकती है। अगर उसका इस्तेमाल कौशल विकास और रोजगार के अवसरों का सृजन करने के लिए नहीं किया गया तो वह भविष्य में ज्यादा फायदेमंद नहीं हो सकती, क्योंकि मदद बंद होते ही संबंधित परिवार के लिए फिर से 'पुरानी' समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।
कोरोना महामारी ने लाखों परिवारों का बजट बिगाड़ दिया था। उससे किसी तरह निकले तो रहन-सहन, स्कूल फीस, इलाज जैसे खर्चे बढ़ गए। सरकार अपने कर्मचारियों को वेतनवृद्धि और विभिन्न भत्तों समेत कई सुविधाएं देती है। उनका क्या जो रोज कुआं खोदते हैं और उससे रोज पानी पीते हैं? जब ये परिवार देखते हैं कि एक ओर सेलिब्रिटी दुनिया घूम रहे हैं और हमारे पास सपरिवार रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए भी पैसे नहीं, एक ओर किसी उद्योगपति के घर में महीनों से शादी के कार्यक्रम हो रहे हैं और हमारे पास सर्दियों में अच्छा कोट खरीदने के लिए भी पैसे नहीं, लोग यूरोप जाकर महंगे पकवान उड़ा रहे हैं और हमारे पास रोजाना दूध खरीदने के लिए भी पैसे नहीं ...! यह स्थिति सामाजिक असंतोष को बढ़ावा देती है। सोशल मीडिया पर ऐसी सामग्री की भरमार है, जिसमें आम लोग अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद उनके लिए हालात मुश्किल ही हैं। इस 'आक्रोश' को हवा देने, उसे भुनाने के लिए कुछ संगठन खड़े हो जाते हैं, जिनके कर्ताधर्ता आम लोगों को हक दिलाने के नाम पर सुनहरे सपने दिखाते हैं और जब दांव लगता है तो वे 'अपने सपने' पूरे करते हैं। पिछली सदी में पूंजीवाद के खिलाफ हुंकार से कई देशों की सरकारें उड़ गई थीं। हालांकि उसके बाद जो नई व्यवस्था बनी, वह भी पुराने ढर्रे पर चलने की आदी हो गई। हाल में कुछ उद्योगपतियों ने हफ्ते में काम के घंटों में बढ़ोतरी को लेकर जो बयान दिए, उससे कामकाजी वर्ग खासा नाखुश है। हो सकता है कि उन उद्योगपतियों की मंशा युवाओं को प्रेरणा देने की रही हो, लेकिन उनके बयानों ने कई तरह की आशंकाओं को जन्म दिया। जब मामला सोशल मीडिया पर तूल पकड़ने लगा तो उनकी ओर से जो 'सफाई' पेश की गई, उसमें भी स्पष्टता की कमी थी। याद रखें, देश हो या दुनिया, हर वर्ग की उन्नति जरूरी है। अगर एक वर्ग अथाह धन-संपत्ति का स्वामी बन जाए और दूसरा वर्ग बुनियादी जरूरतों के लिए तरसता रहे, तो यह स्थिति अर्थव्यवस्था के साथ ही न्याय के सिद्धांतों के भी विरुद्ध है।