संपादकीय: संयोग या प्रयोग?

संपादकीय: संयोग या प्रयोग?

संपादकीय: संयोग या प्रयोग?

दक्षिण भारत राष्ट्रमत में प्रकाशित संपादकीय

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भाजपा से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता निभाएं, जमकर निभाएं लेकिन इतना ध्यान जरूर रखें कि जब कोई बयान दें तो उसके तथ्यों की जांच कर लें। जुबान से निकले शब्द कमान से छूटे तीर की तरह होते हैं। एक बार निकल गए सो निकल गए। अब सोशल मीडिया के जमाने में ‘जुबान’ की जगह ट्विटर, फेसबुक या जो मंच हो, उसे रख सकते हैं। राहुल गांधी का यह बयान कि ‘भारत अब लोकतांत्रिक देश नहीं रह गया’, अत्यंत भ्रामक एवं असत्य है। अगर देश में कोई लोकतंत्र ही नहीं है, तो हाल में घोषित विधानसभा चुनाव कार्यक्रम क्या है? क्या उनकी पार्टी इसमें भाग नहीं ले रही है? अगर लोकतंत्र नहीं है तो आप निर्भय होकर भाषण कैसे दे रहे हैं?

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आपका यह ट्वीट ही इस बात का प्रमाण है कि देश में लोकतंत्र कायम है। अगर लोकतंत्ररहित शासन का उदाहरण देखना हो तो म्यांमार, चीन, पाकिस्तान की ओर देखिए। यहां सर्वोच्च सत्ताधारियों के खिलाफ कुछ लिखा, सार्वजनिक बयान दिया तो गए काम से! जैक मा चीन के अरबपति होंगे, लेकिन शी जिनपिंग की नीतियों पर एक सवाल उठाया तो आज तक मालूम नहीं कि उनका ठिकाना कहां है।

राहुल गांधी अपनी दलील को मजबूती देने के लिए जिस रिपोर्ट का हवाला दे रहे हैं, वह भी अत्यंत हास्यास्पद है। उसकी मानें तो भारत में तानाशाही है, जिस तरह की पाकिस्तान में होती है। वहीं, इस मामले में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति बांग्लादेश से भी बदतर बताई गई है। स्वीडन से आई इस रिपोर्ट को कुछ लोग हाथोंहाथ लपक रहे हैं, गोया बरसों की साध पूरी हुई। वी-डेम इंस्टीट्यूट के शोधार्थियों ने कहां और किससे पूछकर रिपोर्ट तैयार की, यह विचारणीय है। इसके द्वारा भारतीय लोकतंत्र को चुनावी निरंकुश घोषित करने का ढकोसला कुछ लोगों के दिल को सुकून तो दे सकता है, लेकिन देश की आम जनता इससे सहमत नहीं होगी। अगर चाहें तो कोई इस विषय पर सर्वेक्षण कर सकता है।

इससे पहले फ्रीडम हाउस नामक एक थिंक टैंक ने इसी तरह की भ्रामक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसे जोरशोर से प्रचारित किया गया। एक के बाद एक इस तरह की रिपोर्टें आना कोई संयोग है या प्रयोग? विचारशील लोगों को इस पर जरूर ध्यान देना चाहिए। राहुल गांधी तो यह उद्घोष कर चुके हैं कि भारत में लोकतंत्र नहीं बचा है। इस अवसर पर उनसे यह प्रश्न अवश्य पूछा जाना चाहिए कि ‘क्या आपने पूर्व में लोकतंत्र के प्रति भरोसा मजबूत करने वाले आदर्श स्थापित किए हैं?’ राहुल गांधी ज्यादा दूर न जाएं, सिर्फ जून 2011 की उस भयानक रात का दृश्य याद कर लें जब स्वामी रामदेव के आह्वान पर आंदोलन कर रहे निहत्थे लोगों की किस तरह पिटाई की गई। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किस तरह कानून को ताक पर रखकर देशशवासियों पर आपातकाल थोपा, उसे भुलाया नहीं जा सकता। स्वयं राहुल गांधी उस पर बयान देकर अपना पल्ला झाड़ चुके हैं।

ये तो महज दो घटनाएं हैं। जब देश पर कांग्रेस का एकछत्र राज ​था, उस समय ऐसी अनगिनत घटनाएं हुईं जिन्हें किसी दृष्टि से प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। क्या राहुल गांधी को लगता है कि तब देश में लोकतंत्र परवान पर था? इन पंक्तियों का यह आशय कदापि नहीं है कि पूर्व में सरकारों ने ऐसे कृत्य किए हैं, तो वर्तमान सरकार को उन्हें दोहराना चाहिए। हमें उनसे शिक्षा लेकर अब सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ सबसे अच्छे एवं सबके लिए अनुकरणीय लोकतंत्र बनने की ओर अग्रसर होना चाहिए।

भारत का लोकतंत्र स्वीडन में बैठकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त चार पंक्तियां लिख देने से निर्धारित नहीं होता। यह इस देश के करोड़ों नागरिक निर्धारित करते हैं। राजनेता जब कोई बयान दें तो इस बात को याद रखें कि विदेशी थिंक टैंकों की शाबाशी से उनका कल्याण नहीं होगा। जो रिपोर्ट भारत के लोकतंत्र की समानता पाकिस्तान जैसे दुर्दांत आतंकी देश से बैठाती है, उसके शोधकर्ता के मानसिक स्तर की व्याख्या करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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