नई रक्षा रणनीति जरूरी
नई रक्षा रणनीति जरूरी
चीन के साथ वर्ष १९६२ की जंग के पहले भारतीय सेना की जो सैन्य क्षमता तीन लाख जवानों से भी कम हुआ करती थी, वह क्रमिक रूप से ब़ढती हुई ८.२५ लाख जवानों तक पहुंच गई। सैन्य क्षमता में ब़ढोतरी को मंत्रिमंडल की आपात समिति ने वर्ष १९६४ में इस आधार पर मंजूरी दी थी कि भारत को पाकिस्तान और चीन दोनों के खिलाफ एक साथ ल़डाई के लिए तैयार रहना होगा। उसी समय वायुसेना में भी ल़डाकू विमानों के ४५ स्क्वाड्रन तैयार करने को मंजूरी दी गई थी। उसके बाद आतंकवाद और घरेलू अशांति जैसी वजहों से सेना की क्षमता ब़ढकर १२ लाख से भी अधिक हो चुकी है जबकि वायुसेना के स्क्वाड्रन की संख्या ब़ढकर ३३ ही है। नौसेना की क्षमता में ब़ढोतरी के लिए स्वीकृत स्तर को अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है। सवाल उठता है कि १९६० के दशक के बाद हमारे सुरक्षा परिवेश में क्या ऐसे बदलाव आए हैं कि रक्षा रणनीति की समीक्षा की जरूरत ख़डी हो गई है या फिर हालात कमोबेश पहले जैसे ही हैं? इस दौरान संबद्ध पक्ष परमाणु हथियारों से लैस हो चुके हैं। चीन के पास अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं जिनकी जद में भारत का समूचा भूभाग है। वहीं भारत के पास मौजूद मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें चीन के दक्षिणी हिस्सों के अलावा समूचे पाकिस्तान को अपनी जद में ले सकती हैं। आज यह दलील दी जा सकती है कि जमीन से चलाई जाने वाली मिसाइलों को प्रक्षेपण के पहले ही नष्ट किया जा सकता है या ल़डाकू विमानों को पहले ही मार गिराया जा सकता है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हथियार अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएगा। चीन और भारत के पास पनडुब्बी से चलाए जा सकने वाले परमाणु हथियार भी हैं लेकिन किसी को नहीं मालूम कि इसका बटन पहले कौन दबाएगा? इस परिस्थिति में यह माना जा सकता है कि ये तीनों देश शायद ही कुछ ऐसा करेंगे जो नाभिकीय टकराव की स्थिति पैदा करे। वैसे दो देशों के बीच खुली जंग होने पर दुस्साहस भरे तरीके आजमाए जा सकते हैं लेकिन यह उम्मीद करना हमारा भोलापन होगा कि दुनिया उनके सैन्य टकराव को उस स्थिति तक पहुंचने देगी। हालांकि समय-समय पर ऐसे बयान आते रहे हैं कि भारत को एक साथ दो मोर्चों पर ल़डाई के लिए खुद को तैयार रहना होगा लेकिन अभी तक यह महज शब्दाडंबर ही साबित हुआ है। संक्षेप में, इन तीनों देशों के बीच ऐसे सैन्य टकराव के आसार बहुत कम हैं जिनमें टैंकों और थल सेना को लंबे समय तक तैनात करने की जरूरत प़डे। लेकिन आज से ५० साल पहले ऐसे हालात नहीं थे। फिर हमारा राजनीतिक नेतृत्व सैन्य जरूरतों के बारे में नए सिरे से विचार करने और सेना के तीनों अंगों के लिए नई रणनीति बनाने के बारे में क्यों नहीं सोच रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसे हरेक विचारशील भारतीय को सवाल पूछना चाहिए।