राजद सांसद मनोज झा ने वीबी-जी राम जी बिल का विरोध करने की अपील की

मनरेगा को बचाने के लिए सांसदों को पत्र लिखा

राजद सांसद मनोज झा ने वीबी-जी राम जी बिल का विरोध करने की अपील की

Photo: @manojkjhadu X account

नई दिल्ली/पटना/दक्षिण भारत। राजद सांसद मनोज झा ने फैसले लेते समय सबसे गरीब व्यक्ति का चेहरा याद रखने के गांधीजी के सिद्धांत का हवाला देते हुए गुरुवार को साथी सांसदों को एक खुला पत्र लिखकर उनसे मनरेगा का बचाव करने की अपील की। उन्होंने वीबी-जी राम जी बिल का विरोध करने के लिए कहा।

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झा ने यह पत्र एक्स पर शेयर किया और कहा, 'संसद में साथी सदस्यों से मनरेगा को बचाने की अपील करता हूं, जो सिर्फ़ एक सरकारी कार्यक्रम नहीं था, बल्कि भारतीय गणराज्य द्वारा अपने सबसे गरीब नागरिकों से किया गया एक नैतिक वादा था। यह गरिमा, आजीविका और सामाजिक न्याय के संवैधानिक वादे को दर्शाता है।'

उन्होंने कहा, 'यह अपील किसी पार्टी विशेष की नहीं है। मनरेगा को साल 2005 में सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के समर्थन से लागू किया गया था। तब सदन ने एक साझा संवैधानिक ज़िम्मेदारी को माना था कि सम्मान के साथ काम करने का अधिकार हमारे लोकतंत्र का एक ज़रूरी हिस्सा है।'

झा ने कहा, 'संविधान का अनुच्छेद 41 राज्य को काम के अधिकार को सुरक्षित करने और बेरोज़गार और ज़रूरतमंदों को सार्वजनिक सहायता देने का निर्देश देता है। मनरेगा ने इस निर्देश को एक कानूनी गारंटी में बदल दिया था। प्रस्तावित बिल उस गारंटी को खत्म कर देता है।'

उन्होंने कहा, 'सरकार का दावा है कि नया फ्रेमवर्क 100 दिन के बजाय 125 दिन का काम देगा। यह दावा गुमराह करने वाला है। मनरेगा के उलट, जो मांग पर आधारित था, नया बिल रोज़गार को केंद्र सरकार के आवंटन और प्रशासनिक विवेक पर निर्भर बनाता है।'

उन्होंने कहा, 'इसका कवरेज अब यूनिवर्सल नहीं है, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा नोटिफाइड इलाकों तक ही सीमित है। ऐसे समय में जब अपर्याप्त फंडिंग के कारण मनरेगा मजदूरों को भी सालाना सिर्फ 50-55 दिन का काम मिल रहा है, तो बिना पक्के संसाधनों के अतिरिक्त दिनों का वादा भरोसेमंद नहीं लगता।'

झा ने कहा, 'इसके अलावा, प्रस्तावित लागत-साझाकरण व्यवस्था - जिसमें राज्यों को खर्च का 40 प्रतिशत वहन करना होगा - कई राज्यों पर एक असहनीय बोझ डालेगी, जिससे बहिष्कार और कमी आएगी।'

उन्होंने कहा, 'मनरेगा में कुछ कमियां हैं, लेकिन वे कानून की वजह से नहीं, बल्कि इसे लागू करने में नाकामियों की वजह से हैं। दो दशकों में, इसने मुश्किल समय में ज़रूरी मदद दी है, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई है और काम को एहसान नहीं, बल्कि अधिकार के तौर पर मानने के सिद्धांत को बनाए रखा है।'

उन्होंने कहा, 'इसे मज़बूत किया जा सकता था और किया जाना चाहिए था। बिना सलाह-मशवरे या सहमति के इसे खत्म करना सुधार नहीं है; यह संवैधानिक ज़िम्मेदारी से पीछे हटना है।'

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