समाज के ठेकेदार ...?

समाज के ठेकेदार ...?

समाज जिनको दायित्व के योग्य समझता है वे ही दायित्व  संभालते हैं


.. श्रीकांत पाराशर ..

आजकल एक फैशन चल रहा है ... सामाजिक संगठनों के अग्रणी पदों का दायित्व (किसी भी स्तर पर..राष्ट्रीय से लेकर जिला तक) जिन्हें दिया जाता है उनको अपमानित कर खुशी महसूस करने वाले उनको बात बात में "अब समाज के ठेकेदार कहां हैं?" कह कह कर अपने मन की भड़ास निकालते रहते हैं। जब-तब उन्हें समाज का ठेकेदार कह देते हैं। ये वही कुंठित लोग होते हैं जो या तो उस स्थान तक पहुंच नहीं पाते या ईर्ष्यावश दूसरों को मिल रहे मान सम्मान को पचा नहीं पाते, इसलिए जब जब मौका मिले...समाज के ठेकेदार कहां हैं...वाला शिगूफा छोड़कर समाज में परस्पर वैमनस्य बढाने का प्रयास करते हैं।

ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए। इस प्रकार के महानुभाव जब जब भी वैचारिक गंध फैलाने की अपनी हरकत करते हैं तब तब उनसे हमें भी बड़े प्यार से ऐसे कुछ सवाल पूछने चाहिएं....समाज जिनको दायित्व के योग्य समझता है वे ही दायित्व  संभालते हैं, आपको समाज ने "ठेकेदार" क्यों नहीं बनाया? आपका स्वयं का समाज में क्या योगदान है, आर्थिक, वैचारिक, शारीरिक, कुछ तो होगा? आप देखेंगे कि सामने से आपके किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा। निल बट्टा सन्नाटा। दरअसल ऐसे कुंठित लोग हंगामा, हो-हल्ला, हुड़दंग करने में विश्वास करते हैं, कोई अच्छा काम हो रहा हो तो बिगाड़ कर संतुष्टि महसूस करते हैं। ऐसे लोग हर समाज में, हर शहर-गांव में बहुतायत से मिलते हैं।

ये बहुत सीधे बनकर संगठनों में घुसते हैं और फिर कुछ समय बाद अपनी असली औकात में आ जाते हैं। आपने भी, कई बनते काम बिगड़ते हुए देखे होंगे। थोड़ा  सा दिमाग पर जोर देंगे तो उनके चेहरे आपकी आंखों के सामने आ जाएंगे जिन्होंने काम बिगाड़ा। इसीलिए अनेक संगठन अच्छी अच्छी योजनाओं के क्रियान्वयन में पिछड़ जाते हैं। मैं अपने वर्षों के अनुभव के कारण दावे के साथ कह सकता हूं  कि ऐसे लोगों की अपने घर परिवार, कुटुंब में भी कोई ज्यादा पूछ नहीं, वहां इनके विचारों को कोई अहमियत नहीं देता, इसलिए ये सामाजिक संस्थाओं में घुसकर उनको कमजोर करने में अपनी ऊर्जा लगाते हैं।

इसका एक बड़ा नुकसान है। इससे सामाजिक संगठनों में अच्छे लोग कोई भी जिम्मेदारी स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं। इसका नुकसान समाज को होता है। समाज को कमजोर करने वाले ऐसे लोगों को हम घास ही क्यों डालते हैं? ऐसे तो हम सब अपने आपको प्रज्ञा का धनी मानते हैं, विवेकशील समाज मानते हैं फिर जब कोई हमारे ही बीच आकर चिंगारी लगाने और सुलगाने की कोशिश करता है तो हमारी प्रज्ञा, हमारा विवेक कहां चला जाता है?

हम तुरंत ऐसे व्यक्ति को उचित जवाब देकर उसका मुंह बंद क्यों नहीं कर सकते? हमें इस सच्चाई से वाकिफ होना चाहिए कि संगठनों में पदाधिकारी कोई सैलरीड नौकर नहीं हैं, स्वेच्छा से समाज के लिए कुछ अच्छा करने का भाव लेकर आते हैं। उन्हें अंटशंट कहने का हमें किसी ने अधिकार नहीं दिया। वे अपना धन या अपना कीमती वक्त या अपने श्रेष्ठ विचारों का योगदान देते हैं, अपनी ऊर्जा देते हैं। जिन्होंने समाज के लिए शून्य सहयोग दिया हो उनसे अपमानित होने के लिए वे सामाजिक संगठन में नहीं आते।

मैं यह बात किसी विशेष मुद्दे, किसी विशेष घटना या किसी  विशेष व्यक्ति को इंगित करके नहीं कह रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि कुछ लोग संस्थाओं में अकारण विवाद पैदा करने के ध्येय से पदाधिकारियों को भलाबुरा कहते हैं, उनको प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष अपमानित करते हैं, यह उचित नहीं है। समाज के सेवकों को ठेकेदार कहकर संबोधित करने के पीछे भले लोगों को सामाजिक सक्रियता से दूर रखने की साजिश है। ऐसे लोगों को पहचानिए, उनके बहकावे में मत आइए।

आप जिस भी संगठन से जुड़े ह़ैं वहां अपनी बात को उचित समय, उचित मंच पर उचित ढंग से रखिए। जो कुंठित लोग हैं, समाज को आगे बढता नहीं देख सकते उनके पास भी मत खड़े होइए। यह भी एक बड़ी समाजसेवा है। हां, यह भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि यह लघुलेख लिखने का यह कतई अर्थ नहीं है कि ऐसा कुछ मेरे साथ घटा है, मुझे किसी ने कहा है, इसलिए मैंने जिक्र किया है। बिल्कुल नहीं। हां, मैंने देखा है, सुना है, पढा है। मुझे तो अगर कोई ऐसा-वैसा कहता तो बिल्कुल पुख्ता जवाब भी पाता परंतु अनेक अच्छी भावना से समाज से जुड़ने वाले लोग यह सब सुनकर, देखकर दूर ही रह जाते हैं। इसलिए सजग रहिए, समाजहित में अपना यह दायित्व भी निभाइए कि आप जिस भी संगठन से जुड़े हैं उसमें कोई वैचारिक प्रदूषण न फैला सके। धन्यवाद।

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