छवि सुधारने की कोशिश

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प्रियंथा कुमारा जैसा मामला पाकिस्तान में न तो पहला है और न आखिरी


श्रीलंकाई नागरिक प्रियंथा कुमारा की पिछले साल दिसंबर में पाकिस्तान के सियालकोट में पीट-पीटकर हत्या और जला देने के मामले में वहां की अदालत का फैसला इंसाफ की नज़ीर से ज़्यादा दुनिया के सामने अपनी बिगड़ती छवि को सुधारने की कोशिश है। पाक का भयानक कट्टर चेहरा ऐसे फैसलों से उज्ज्वल होने वाला नहीं है। इस फैसले पर संतोष तो किया जा सकता है कि अदालत ने छह लोगों को मृत्युदंड, नौ को आजीवन कारावास, 72 को दो साल की सजा और एक को पांच साल की कैद सुनाई है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि फैसला निचली अदालत का है।

अभी उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय समेत कई विकल्प मौजूद हैं। ऐसे में दोषियों को सजा हो जाए, यह संदिग्ध ही है। पाकिस्तान में न्यायापालिका पर कट्टरपंथियों और आतंकवादियों का प्रभाव एवं दबाव रहा है। हाल में जिस तरह टीएलपी का उत्थान हुआ है, भविष्य में यह संगठन अपना वोटबैंक मजबूत करने के लिए ऐसे मामलों को उठा सकता है, जिससे पाक सरकार एवं न्यायपालिका को देर-सबेर झुकना ही होगा।

प्रियंथा कुमारा जैसा मामला पाकिस्तान में न तो पहला है और न आखिरी। यह तो सोशल मीडिया था जिसके कारण मामले का खुलासा हो गया। अकेले, निहत्थे विदेशी नागरिक को बेरहमी से पीटती दरिंदों की भीड़ और आग लगाकर सेल्फी लेते चेहरों को पूरी दुनिया ने देखा तो पाक को कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई थी। उसने दबाव में आकर आरोपियों की पकड़-धकड़ में रुचि दिखाई, अन्यथा वहां कितने ही हत्यारे खुले घूम रहे हैं।

दरअसल ऐसे मामलों में हत्यारों को सज़ा देने से जज भी डरते हैं। वहां ईशनिंदा कानून अब तक कई लोगों की ज़िंदगी छीन चुका है। जजों को भी पता है कि अगर वे किसी बेकसूर को बरी कर देंगे या उसके पक्ष में टिप्पणी कर देंगे तो उनके अंगरक्षक ही गोली से उड़ा देंगे। पूर्व गवर्नर सलमान तासीर के साथ ऐसा ही हुआ था। पिछले साल एक बैंक मैनेजर को गार्ड ने ईशनिंदा के नाम पर गोली मार दी, जबकि मामला कुछ और था। मशाल खान को आज तक इंसाफ नहीं मिल सका। आसिया बीबी नामक ईसाई महिला ने ईशनिंदा के झूठे मुकदमे के कारण अपनी ज़िंदगी के कई साल जेल में काटे और अब विदेश रहती हैं।

ऐसे हालात में जज जानते हैं कि पीड़ित के पक्ष में एक भी टिप्पणी उनका डेथ वारंट बन जाएगी। प्रियंथा मामले में निचली अदालत के इस फैसले को पाक पर चौतरफा दबाव की परिणति के रूप में लिया जाना चाहिए। किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अब पाकिस्तानी अदालतें ईशनिंदा पीड़ितों को न्याय देने लगी हैं। अगर ऐसा होता तो उन सैकड़ोंं नागरिकों को भी न्याय मिल जाता, जो वर्षों से जेलों में बंद हैं। वे तारीख के इंतज़ार में कैद काट रहे हैं। उनके लिए न तो न्याय है और न इसकी कोई संभावना है।

पाकिस्तान का समाज नफरत में इतना डूब चुका है कि मज़हब के नाम पर किसी की जान ले लेना आम बात है। समाज में उन्हें महिमामंडित किया जाता है। पुलिस और एजेंसियों पर जब तक अंतरराष्ट्रीय दबाव न पड़े, कुछ नहीं होता। पाक में यह तब तक होता रहेगा, जब तक कि कट्टरता खत्म नहीं होगी। पहले ईशनिंदा के शिकार अल्पसंख्यक होते थे लेकिन अब बहुसंख्यक भी इसका दंश भुगत रहे हैं।

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