स्टालिन-अलागिरी के बीच कलह से किसे होगा फायदा और कौन उठाएगा नुकसान?
स्टालिन-अलागिरी के बीच कलह से किसे होगा फायदा और कौन उठाएगा नुकसान?
चेन्नई/दक्षिण भारत। इस बार राज्य की मुख्य विपक्षी पाटी द्रविड़ मुनेत्र कषगम में अंदरूनी कलह की बातें सुर्खियां बटोर रही है। करुणानिधि की मौत के बाद उनके दो बेटों में ही पार्टी की कमान सम्भालने को लेकर ठन गई है। तमिलनाडु के राजनीतिक गलियारे में सबकी नजरें अब इन दोनों भाइयों पर टिकी हैं।
सवाल यही है कि अलागिरी-स्टालिन विवाद किस करवट बैठेगा? क्या द्रमुक में बिखराव होगा? राज्य के राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अलागिरी-स्टालिन विवाद में आगे क्या होगा, यह द्रमुक की अगले महीने होने वाली सामान्य परिषद की बैठक के बाद स्पष्ट हो पाएगा। बैठक का प्रमुख एजेंडा स्टालिन को अधिकारिक तौर पर द्रमुक का अध्यक्ष घोषित करना है।द्रमुक की कार्यकारिणी समिति की बैठक में सभी बड़े नेताओं ने स्टालिन को द्रमुक का अगला अध्यक्ष बनाने पर मुहर लगाई थी। स्टालिन के अध्यक्ष बनने के बाद अलागिरी के लिए पार्टी और राज्य की राजनीति में विकल्प घट जाएंगे। उन्हें या तो स्टालिन के नेतृत्व को स्वीकारना होगा या राजनीति में रहने के लिए किसी और का दामन थामना होगा।
हालांकि अलागिरी जानते हैं कि अलग पार्टी बनाना खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। स्टालिन ने अलागिरी को लेकर चुप्पी साध रखी है। नेताओं का कहना है कि स्टालिन जानते हैं कि द्रमुक के बड़े नेता और लोगों की हमदर्दी उनके साथ हैं। ऐसे में वह अलागिरी के बयानों पर प्रतिक्रिया देकर तूल नहीं देना चाहते हैं।
अलागिरी का कहना है कि द्रमुक के निष्ठावान कार्यकर्ता उनके साथ हैं, मगर उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया है। द्रमुक के दिग्गज नेता ए राजा, दयानिधि मारन, कनिमोझी, अनभ अगलन और मंगलीरानी हमेशा स्टालिन के साथ नजर आते हैं।
ज्ञातव्य है कि अलागिरी को वर्ष 2014 में द्रमुक से निकाल दिया गया था, लेकिन अलागिरी ने न तो पिता से पार्टी में वापसी की अपील की और न ही नेताओं से मेलजोल बढ़ाया। अलागिरी की मदुरै में अच्छी पैठ मानी जाती है। यदि अलागिरी को द्रमुक की आगामी बैठक में पार्टी में वापस नहीं लिया जाता है या उन्हें कोई प्रमुख पद नहीं दिया जाता है तो आगामी स्थानीय निकाय चुनाव और लोकसभा चुनाव में द्रमुक को कोंगु क्षेत्र विशेषकर मदुरै और इसके आसपास के स्थानों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
बहरहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि दो भाइयों के बीच पैदा हुआ यह मतभेद राज्य में जयललिता के निधन के बाद कमजोर होती सत्तारूढ़ अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम या राज्य में पैठ जमाने की कोशिशों में लगी भारतीय जनता पार्टी को कितना फायदा पहुंचा सकता है।
जब से स्टालिन और अलागिरी के बीच मतभेद सामने आए हैं, सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के नेताओं की गतिविधियां बढ़ गई हैं। यदि द्रमुक में दरार पैदा होती है और कुछ नेता टूट कर अलागिरी की ओर जाते हैं तो इसका कहीं न कहीं फायदा अन्नाद्रमुक को होने की संभावना है।
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