त्रिपुरा: डेंटल सर्जन से सीएम तक, ऐसा है माणिक साहा का सियासी सफर

त्रिपुरा: डेंटल सर्जन से सीएम तक, ऐसा है माणिक साहा का सियासी सफर

किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के छात्र रह चुके साहा साल 2016 में भाजपा में शामिल होने से पहले विपक्षी दल कांग्रेस के सदस्य थे


अगरतला/दक्षिण भारत/भाषा। राज्यसभा सदस्य माणिक साहा ने रविवार को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। बिप्लब कुमार देब की जगह अपेक्षाकृत अधिक उम्र वाले डेंटल सर्जन डॉ. माणिक साहा को मुख्यमंत्री नियुक्त करने के फैसले को कई लोग रणनीतिक लिहाज से अहम इस पूर्वोत्तर राज्य में ‘दोबारा जड़ें जमाने की भाजपा की बड़ी कवायद’ के तौर पर देख रहे हैं।

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लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के छात्र रह चुके साहा (69) साल 2016 में भाजपा में शामिल होने से पहले विपक्षी दल कांग्रेस के सदस्य थे। 2020 में बिप्लब देब (50) के त्रिपुरा भाजपा का अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद उन्होंने राज्य में पार्टी की कमान संभाली थी। राज्य के दिग्गज बैडमिंटन खिलाड़ियों में शुमार रह चुके साहा त्रिपुरा क्रिकेट संघ के अध्यक्ष भी हैं।

हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में साहा का कद उनकी साफ छवि और ट्रैक रिकॉर्ड के कारण बढ़ा, जिसमें नवंबर 2021 में त्रिपुरा में हुए निकाय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस से कांटे की टक्कर के बीच सभी 13 नगर निकायों में पार्टी को जीत दिलाना शामिल है।

सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री बदलने का फैसला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भेजे गए एक विश्लेषण के बाद आया, जिसमें ये संकेत दिए गए थे कि त्रिपुरा में पार्टी और सरकार में बदलाव करने की जरूरत है।

सत्तारूढ़ दल के उच्च पदस्थ सूत्रों ने कहा कि राज्य में अगले आठ से नौ महीने में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों से पहले संगठन को ‘तत्काल मजबूती देने’ के लिए यह कदम जरूरी था।

सूत्रों के अनुसार, जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच स्थिति ठीक नहीं चल रही थी, क्योंकि युवा कार्यकर्ताओं का एक वर्ग, जिसे ‘बाइक गैंग’ कहा जाता है, इस तरह की गतिविधियां कर रहा था, जिससे ‘पार्टी की छवि को नुकसान पहुंच रहा था।’ वरिष्ठ नेता केंद्रीय नेतृत्व को इस मुद्दे पर लगातार पत्र लिख रहे थे।

हालांकि, भाजपा के लिए वास्तव में जो बड़ी चुनौती सामने आ रही थी, वह थी राज्य में त्रिपुरा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन या टिपरा मोथा का अचानक उभरना। ‘टिपरा मोथा’ शाही वंशज प्रद्योत किशोर देबबर्मा के नेतृत्व वाला एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है, जो त्रिपुरा के आदिवासियों के लिए अलग राज्य की स्थापना की मांग कर रहा है।

‘टिपरा मोथा’ ने अप्रैल 2021 में हुए त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (टीटीएएडीसी) के चुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा-आईपीएफटी गठबंधन के साथ सीधे मुकाबले में ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग के साथ 28 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

अलग राज्य की मांग कई विधानसभा सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि आदिवासी वहां निर्णायक भूमिका में हैं।

‘टिपरा मोथा’ ने आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग उठाकर त्रिपुरा की राजनीति का पूरी तरह से ध्रुवीकरण कर दिया था। इससे राज्य के मिश्रित आबादी वाले कुछ इलाकों में तनाव पैदा हो गया था, जहां आदिवासियों की संख्या एक-तिहाई के करीब है।

पार्टी सूत्रों ने कहा कि भाजपा आदिवासी बहुल इलाकों में ‘टिपरा मोथा’ के उदय से निपटने की स्थिति में नहीं है और अगले चुनावों में इन क्षेत्रों में उसकी भारी जीत की संभावना जताई जा रही है।

यही नहीं, ‘टिपरा मोथा’ ने कुल 40 सामान्य सीटों में से कम से कम 25 पर उम्मीदवार उतारने की चेतावनी दी है। चूंकि, इन सीटों पर आदिवासी वोटों की संख्या काफी अधिक है, ऐसे में देबबर्मा का समर्थन अगले चुनावों में अहम साबित हो सकता है।

इसके अलावा, भाजपा की आदिवासी सहयोगी ‘द इंडीजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी)’ आदिवासी परिषद के पिछले चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई थी। यही नहीं, हाल ही में पार्टी को विभाजन का सामना करना पड़ा है और यह दो मौजूदा मंत्रियों के नेतृत्व में बंट गई है।

हालात को देखते हुए भाजपा ने संगठन के स्तर पर पार्टी को मजबूत बनाने का निर्णय लिया और अपनी आदिवासी इकाई ‘जनजाति मोर्चा’ के नेतृत्व में फेरबदल किया।

क्या मिलनसार स्वभाव वाले साहा अपने पूर्ववर्ती द्वारा छोड़े गए विविध मुद्दों से निपटने में सक्षम होंगे और भाजपा को बड़ी जीत की ओर ले जाएंगे? या फिर नए कलेवर में उतरे वामदल या युवा शाही पार्टी के सहयोग से राज्य में दस्तक देने वाली तृणमूल कांग्रेस उसके हाथों से जीत छीनने में कामयाब रहेगी? इन सवालों के जवाब निश्चित तौर पर समय ही देगा।

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