न्याय की जीत, बेबुनियाद थ्योरी ध्वस्त

जिन नेताओं ने भगवा को बदनाम करने के लिए नकली थ्योरी गढ़ी, आज उनके पास कोई जवाब नहीं है

न्याय की जीत, बेबुनियाद थ्योरी ध्वस्त

असली गुनहगार कहां गए?

मालेगांव धमाका मामले में विशेष अदालत के फैसले ने 'भगवा आतंकवाद' की बेबुनियाद थ्योरी को ध्वस्त कर दिया है। सभी आरोपियों को बरी करने के अदालत के इस फैसले ने उन नेताओं के दावों को आखिरकार झूठा साबित कर दिया, जो देश के बहुसंख्यक समुदाय को बदनाम करने के लिए एक नई लहर चलाना चाहते थे। उस समय कई पत्र-पत्रिकाओं और समाचार चैनलों में 'भगवा आतंकवाद' की जिस तरह चर्चा की गई, उससे निश्चित रूप से बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत हुई थीं। 'भगवा' हमारी आध्यात्मिक परंपराओं, त्याग और बलिदान का प्रतीक है। यह 'वसुधैव कुटुंबकम्' का संदेश देता है। जिन नेताओं ने भगवा को बदनाम करने के लिए नकली थ्योरी गढ़ी, आज उनके पास कोई जवाब नहीं है। जब मीडिया उनसे सवाल पूछ रहा है तो वे बातों की जलेबियां बना रहे हैं। इस मामले में जिन लोगों को आरोपी बनाया गया था, उनके जीवन के अनमोल साल जेल में बीत गए। वे अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए अदालत के चक्कर लगाते रहे। उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हुई, सेहत को नुकसान हुआ, मानसिक पीड़ा हुई। जब किसी व्यक्ति पर ऐसा गंभीर आरोप लग जाता है तो सबसे पहले पड़ोसी, दोस्त और रिश्तेदार मुंह मोड़ते हैं। साफ कह देते हैं कि हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं है। आरोपियों में भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित और मेजर रमेश उपाध्याय (सेवानिवृत्त) रहे हैं। ले. कर्नल पुरोहित के कई साथी ब्रिगेडियर बन चुके हैं, जबकि वे इस अवधि में पदोन्नति से वंचित रहे। किसी व्यक्ति के लिए यह अनुभव बहुत तकलीफदेह होता है।

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मालेगांव की घटना के बाद जब 'भगवा आतंकवाद' का दुष्प्रचार किया गया तो पाकिस्तान ने इसे हाथोंहाथ लिया था। इस घटना के दो महीने बाद मुंबई पर 26/11 हमला हुआ था। पाकिस्तान ने 'भगवा आतंकवाद' की थ्योरी को उससे जोड़ने की कोशिश की थी। सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो मिल जाएंगे, जिनमें पाकिस्तानी पत्रकार, नेता, विश्लेषक और सैन्य अधिकारी यह कहते नजर आएंगे कि 26/11 हमले को अंजाम देने वाले सभी आतंकवादी भारत के नागरिक थे। उन्होंने इस आधार पर अजमल क़साब से पाकिस्तान का कोई संबंध न होने की दलील दी थी कि भारत में (तत्कालीन) सत्तारूढ़ दल के कुछ वरिष्ठ नेता 'भगवा आतंकवाद' का जिक्र कर चुके हैं। पाकिस्तानियों को यह कहने का पर्याप्त आधार मिल गया था कि भारतीय सेना के अधिकारी ऐसी घटनाओं में शामिल रहते हैं। सोचिए, इस दुष्प्रचार से देश को कितना नुकसान हुआ था? अब एक वरिष्ठ नेता अपनी सफाई देते फिर रहे हैं कि 'मैंने तो ऐसी कोई थ्योरी नहीं दी थी, हम तो हर तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ हैं और आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता।' उन्हें यह दिव्य ज्ञान प्राप्त होने में 17 साल लग गए। आश्चर्य की बात है कि जिस मामले पर उस समय इतना हंगामा हुआ, आरोपियों को देश के दुश्मनों की तरह पेश किया गया, उसमें अधिकारी कोई पुख्ता सबूत ही नहीं ढूंढ़ पाए! वे बम और मोटरसाइकिल का संबंध साबित करने में विफल रहे। उनकी दलीलें अदालत में बेअसर साबित होती गईं। इस केस में कितना दम था, इसका अंदाजा विशेष अदालत के फैसले में की गई इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि 'आरोपियों के खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत मौजूद नहीं हैं तथा अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि विस्फोटक मोटरसाइकिल पर रखा गया था।' ये लोग बेगुनाह हैं तो असली गुनहगार कहां गए? क्या एजेंसियां उन तक नहीं पहुंच पाईं? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब देशवासी जानना चाहते हैं।

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