खोदी पहाड़ी, निकले शहबाज-जरदारी
पाकिस्तान के 'आकाश' पर इन दोनों नेताओं का उदय क्रूर ग्रहों के तौर पर हुआ है
ये जीएचक्यू, रावलपिंडी (पाक फौज का मुख्यालय) के मोहरे हैं, जिन्हें एक बार फिर मौका दिया गया है
अगर पाकिस्तान के लिए एक नई कहावत गढ़नी हो तो वह होगी- 'खोदी पहाड़ी, निकले शहबाज-जरदारी!' इस पड़ोसी देश के लोग तो यह उम्मीद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के चुनावों से ऐसे चेहरे सामने आएंगे, जो मुल्क का बेड़ा पार लगाएंगे, लेकिन जो चेहरे सामने आए हैं, वे तो बेड़ा गर्क करने वाले हैं। बल्कि यह कहना चाहिए कि वे अतीत में भी बेड़ा गर्क कर चुके हैं। लिहाजा उनसे सुनहरे भविष्य की तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। पाकिस्तान के 'आकाश' पर इन दोनों नेताओं का उदय ऐसे क्रूर ग्रहों के तौर पर हुआ है, जिन्हें जब मौका मिलेगा, आम आदमी के भाग्य में 'दुर्दशा' ही लाएंगे। शहबाज शरीफ पूर्व में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अर्थव्यवस्था तबाह कर दी थी। लोग आज भी उनका इसी बात को लेकर जिक्र करते हैं कि इमरान खान के राज में कोई व्यक्ति एक रोटी खाकर सोता था तो शहबाज के राज में वह भी छिन गई थी। रहे आसिफ अली जरदारी, तो ये जनाब पाकिस्तान के सबसे घाघ नेता के तौर पर जाने जाते हैं। इनकी रंगीन-मिज़ाजी के किस्से बड़े मशहूर हैं। और ईमानदारी के तो क्या ही कहने! ये 'मिस्टर टेन परसेंट' कहलाते हैं। इनकी करामात देखनी हो तो सिंध के गांवों-शहरों में देखनी चाहिए। वहां वर्षों पीपीपी के सत्ता में रहने के बावजूद सर्वत्र बंटाधार हुआ है। विकास का कहीं नामो-निशान नहीं है। सिंध के कई इलाके तो ऐसे हैं, जो आज भी सत्तर के दशक से बाहर नहीं निकले हैं। उनके लिए भुट्टो 'आज भी ज़िंदा' है।
पाकिस्तान के 'नए नेतृत्व' का कई मुसीबतें इंतजार कर रही हैं। इस समय पाक की अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है, एक-एक अरब डॉलर के लिए मिन्नतें करनी पड़ रही हैं, महंगाई आसमान छू रही है, आतंकवादी संगठन अपनी जड़ें जमा रहे हैं और असहिष्णुता की स्थिति तो यह है कि मामूली-सी बात पर सैकड़ों की तादाद में लोग जान लेने को आमादा हो जाते हैं। ऐसे में शहबाज-जरदारी के पास जादू की कौनसी छड़ी है, जिससे ये पाकिस्तान के हालात ठीक कर देंगे? वास्तव में ये जीएचक्यू, रावलपिंडी (पाक फौज का मुख्यालय) के मोहरे हैं, जिन्हें एक बार फिर मौका दिया गया है। शहबाज शरीफ जिस तरह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं, वह अप्रत्याशित था। आम जनता तो इमरान खान का इंतजार कर रही थी। वह नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री बनने पर भी संतोष कर लेती, लेकिन कुर्सी पर बैठे शहबाज, जिनकी न तो कोई करिश्माई छवि है और न ही उनके हिस्से में कोई ऐसे कारनामे हैं, जिनके आधार पर भविष्य को लेकर उम्मीदें रखी जाएं। यह तो शहबाज के भाग्य से छींका टूट गया कि उन्हें रावलपिंडी से आशीर्वाद मिला। अगर पीएमएल-एन उनके चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ती तो कई सीटों का नुकसान होता। फौज इस बात से भलीभांति परिचित थी, इसलिए चुनाव के दौरान ऐसा माहौल बनाया गया, जिससे जनता में भ्रम फैला कि नवाज शरीफ एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं ... वे आएंगे और इमरान-शहबाज की ग़लतियों को ठीक कर देंगे। निस्संदेह नवाज के बारे में आज भी आम पाकिस्तानी की यह राय है कि वे भ्रष्ट तो हैं, लेकिन उन्हें देश चलाना आता है। वे न तो इमरान की तरह कोई उल्टा-सीधा 'प्रयोग' करते हैं और न शहबाज की तरह अयोग्यता का प्रदर्शन करते हैं। नवाज शरीफ जब भी सत्ता में रहे, पाकिस्तान में लोगों को रोटी मिलती रही। उनका कद कहीं ज्यादा न बढ़ जाए, इसलिए फौज ने उन्हें इस बार कुर्सी नहीं सौंपी। जिन 'दो मोहरों' पर दांव लगाया गया है, वे भी कृपापात्र बने रहने तक कुर्सी पर रहेंगे। जिस दिन ये मोहरे 'पिट' जाएंगे, किसी 'और' पर दांव लगाया जाएगा। पाकिस्तान की जनता अपने देश की फिक्र करे, क्योंकि 'बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था। हर शाख़ पे उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा?'