विपक्षी गठबंधन: कितना टिकाऊ?
विपक्षी दलों की बैठक के बाद उनकी 'एकता' को इस तरह पेश किया जा रहा है कि यह मोदी का 'विजय-रथ' रोकेगी
कांग्रेस के नेतृत्व में जो दल उसके साथ आए हैं, उनमें परस्पर विरोध कम नहीं है
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर पक्ष-विपक्ष की धड़ाबंदी शुरू हो गई है। दोनों अपने खेमे में ज्यादा से ज्यादा दलों को जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटे हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को कड़ी चुनौती देने के प्रयास में जुटे 26 विपक्षी दलों ने अपने गठबंधन का नाम ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस (इंडिया)’ रख लिया है।
इस तरह वे चुनावी मुकाबले को 'राजग' बनाम 'इंडिया' यानी भारत बनाने की कोशिश करेंगे। यह भी प्रचारित करेंगे कि 'इंडिया' ही भारत की आम जनता का सही मायनों में प्रतिनिधित्व कर सकता है। हालांकि चुनावी राजनीति में गठबंधन का प्रयोग कोई नई बात नहीं है। इससे पहले भी बहुत गठबंधन हुए थे। वे अपने समय में सफल-विफल रहे।विपक्षी दलों की बैठक के बाद उनकी 'एकता' को इस तरह पेश किया जा रहा है कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'विजय-रथ' रोकेगी और भाजपा को हराकर ही दम लेगी। गठबंधन की राजनीति में विभिन्न दल (जिनमें विरोधी विचारधारा से भी हो सकते हैं) एक छतरी के नीचे तो आ जाते हैं, लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं है कि इससे उनका वोटबैंक भी एक छतरी के नीचे आ जाएगा।
जब विपक्षी दल गठबंधन कर यह प्रचार करेंगे कि वे भाजपा को हराने के लिए एकसाथ आए हैं तो आम मतदाता के मन में सबसे पहला सवाल यही पैदा होगा कि इससे मेरे जीवन में क्या बदलाव आएगा? वह इस पूरी कवायद को नेताओं की आपसी 'रार' समझकर यह भी जानना चाहेगा कि ऐसा गठबंधन देश को क्या लाभ देगा?
कांग्रेस के नेतृत्व में जो दल उसके साथ आए हैं, उनमें परस्पर विरोध कम नहीं है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इनमें से कितने दल चुनाव तक साथ रह पाएंगे! कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का यह कथन कि 'इस बैठक में हमारी मंशा अपने लिए सत्ता हासिल करने की नहीं है ... हमारा इरादा हमारे संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की रक्षा करना है', बयान की हद तक ठीक है, लेकिन वर्तमान राजनीति में इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हर दल अपने नफे-नुकसान को देखकर ही किसी गठबंधन में शामिल होता है।
निस्संदेह हर राजनीतिक दल यह कामना करता है कि उसकी सत्ता आए। इस आधार पर गठबंधन बनते-बिखरते रहे हैं। इन 26 दलों में से कई तो ऐसे हैं, जिनका पूर्व में राजग से संबंध रहा है। आज तृणमूल कांग्रेस, जदयू, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, शिवसेना (उद्धव गुट) 'संविधान बचाने' के लिए कांग्रेस के पाले में हैं, लेकिन ये दल पहले भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों में सहयोगी रहे हैं। क्या इन्हें तब इस बात का बोध नहीं था? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जिनके राजनीतिक करियर की शुरुआत ही कांग्रेस को कोसने से हुई थी, अब कह रहे हैं कि हम देश को बचाने के लिए और नए भारत को बनाने के लिए इकट्ठे हुए हैं!
गठबंधन को चलाना बड़ा मुश्किल होता है। खासतौर से तब, जब नेतृत्वकर्ता दल खुद कई बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा हो। अभी कांग्रेस कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में सत्ता में है, लेकिन वह लगातार दो लोकसभा चुनाव हार चुकी है। उसके वरिष्ठ नेता राहुल गांधी 'मोदी उपनाम' मामले में संसद सदस्यता गंवा चुके हैं। उन्हें गुजरात उच्च न्यायालय से झटका लग चुका है। अब मामला उच्चतम न्यायालय लेकर गए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उप्र में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा था। स्वयं राहुल गांधी अमेठी सीट हार गए थे।
इस राज्य से (सर्वाधिक) 80 सांसद लोकसभा जाते हैं। इसके अलावा कई राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन उत्साहजनक नहीं रहा था। वहां क्षेत्रीय दल मजबूत हैं। लिहाजा वे सीट बंटवारे के समय ज्यादा 'हिस्सा' चाहेंगे। क्या इस पर एक राय बनेगी?
सवाल तो यह भी है कि क्या अन्य दल अपना वोटबैंक एक-दूसरे के साथ साझा करने के लिए सहर्ष तैयार होंगे? क्या कांग्रेस और आप, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दल, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ... खुले दिल से यह फैसला मानेंगे? अगर मान भी गए तो जनता इस जमावड़े को किस तरह देखेगी? आखिर में तो फैसला उसे ही करना है, जिसने अब तक इन दलों को एक-दूसरे पर शब्दबाण छोड़ते ही देखा है!