लाउडस्पीकर की मर्यादा
कुछ दशक पहले अस्तित्व में आया लाउडस्पीकर किसी भी धर्म का अनिवार्य अंग कैसे हो सकता है?
धार्मिक स्थानों पर लाउडस्पीकर को लेकर उपजे विवादों का ठोस हल निकलना चाहिए। इस संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी नजीर की तरह है। न्यायालय द्वारा एक शख्स की याचिका यह कहते हुए खारिज कर देना कि 'कानून में अब स्पष्ट हो चुका है कि मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करना मौलिक अधिकार नहीं है' — स्वागतयोग्य है। देश में आए दिन लाउडस्पीकर के नाम पर झगड़े होते रहते हैं। सुविधा के तौर पर आया लाउडस्पीकर अब असुविधा बन चुका है।
ऐसे में इसके उपयोग की एक मर्यादा निश्चित करनी होगी। प्राय: लोग इस बात को समझने में ग़लती कर बैठते हैं कि लाउडस्पीकर के उपयोग का कोई धार्मिक आधार नहीं है। कुछ दशक पहले अस्तित्व में आया लाउडस्पीकर किसी भी धर्म का अनिवार्य अंग कैसे हो सकता है? अब समय आ गया है कि देशव्यापी नियमावली बने और सरकारें उन्हें सख्ती से लागू करें।प्राय: देखने में आता है कि राजनीतिक दल तुष्टीकरण और वोटबैंक के कारण ऐसे मसलों को हल करने में रुचि नहीं लेते। इससे समस्याएं बढ़ती जाती हैं और एक दिन किसी अप्रिय घटना के रूप में विस्फोट करती हैं। स्कूल-कॉलेज की परीक्षाओं के दिनों में विद्यार्थियों की यह शिकायत रहती है कि धार्मिक आयोजनों में लाउडस्पीकर के उपयोग से उनकी पढ़ाई में खलल पड़ता है।
बड़े शहरों में रात की पारी में काम करने के बाद सुबह आराम करने वाले लोगों को भी तेज लाउडस्पीकर से काफी दिक्कत होती है। अगर उनका निवास स्थान संबंधित स्थल के पास हो तो दिक्कत और बढ़ जाती है। चूंकि लाउडस्पीकर एक वैज्ञानिक यंत्र है। सुविधा के तौर पर तो इसका उपयोग उचित है लेकिन इसे असुविधा बनने से रोकना होगा। इसके लिए विज्ञान के ही किसी अन्य विकल्प पर विचार करना होगा।
इसके मर्यादित उपयोग को सभी धार्मिक स्थानों पर समान रूप से लागू करना चाहिए। जो व्यक्ति नियमित रूप से संबंधित धार्मिक स्थान पर पूजा/प्रार्थना के लिए जाता है, उसे समय की जानकारी होती है। वह इसके लिए मोबाइल फोन में अलार्म लगा सकता है या संबंधित धार्मिक स्थान की ओर से उसे एसएमएस या वॉट्सऐप मैसेज भेजा जा सकता है। इसके लिए वॉट्सऐप ग्रुप बनाया जा सकता है।
धीरे-धीरे इस सुविधा का अभ्यास हो जाएगा। धार्मिक स्थानों पर आरती, अज़ान, प्रार्थनाएं आदि नियमानुसार चलती रहें। उनका सोशल मीडिया पर लाइव प्रसारण किया जा सकता है। एक बार जब इसे अपना लेंगे तो अन्य आसान विकल्प भी निकल आएंगे। इसके लिए सबको मानसिक रूप से तैयार होना होगा। हठ त्यागना होगा। सर्वसमाज के विषय में सोचना होगा। जो परंपराएं धर्म का अनिवार्य हिस्सा हैं, उन्हें इस तरह निभाया जाए कि अन्य लोगों की सुविधाओं का भी ख़याल हो।