षड्यंत्र की टूलकिट: क्या किसान आंदोलन के नाम पर भारत विध्वंसक ताकतों की प्रयोगशाला बन रहा है?

षड्यंत्र की टूलकिट: क्या किसान आंदोलन के नाम पर भारत विध्वंसक ताकतों की प्रयोगशाला बन रहा है?

षड्यंत्र की टूलकिट: क्या किसान आंदोलन के नाम पर भारत विध्वंसक ताकतों की प्रयोगशाला बन रहा है?

दक्षिण भारत राष्ट्रमत में प्रकाशित संपादकीय

कथित किसान आंदोलन के नाम पर हाल में जो घटनाएं हुईं, उसके बाद यह संदेह जताया जाने लगा था कि इनमें विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है। अब टूलकिट के खुलासे ने इस संदेह को और पुख्ता कर दिया है। दिल्ली पुलिस इसकी जांच कर रही है। इस षड्यंत्र के असली रचयिताओं का भंडाफोड़ होना चाहिए।

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यह टूलकिट उस समय चर्चा में आई जब स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने इसे ट्विटर पर शेयर किया। उन्होंने लोगों से कहा कि अगर आप किसानों की मदद करना चाहते हैं तो इस टूलकिट की मदद लें। दरअसल यह टूलकिट ऐसे दस्तावेजों का समूह है जो लोगों को विद्रोह के लिए उकसाता है।

इस सिलसिले में पुलिस ने ऐसे 300 सोशल मीडिया अकाउंट्स का पता लगाया है जो लोगों को हिंसा, तोड़फोड़ और उपद्रव के लिए उकसा रहे थे। विभिन्न वॉट्सऐप ग्रुप में ऐसे वीडियो, तस्वीरें पोस्ट की जा रही थीं जिनमें यह दावा किया गया था कि किसानों पर पुलिस ने भारी बल प्रयोग किया है। हालांकि, ये सब फर्जी थे; कुछ तस्वीरें तो पाकिस्तान की थीं जिन्हें भारत की बताकर प्रचारित किया जा रहा था।

सोशल मीडिया ने ऐसे उपद्रवियों का काम काफी आसान कर दिया है। कुछ दशक पहले जिस काम के लिए असामाजिक तत्वों को सड़कों पर आना पड़ता था, अब वे उसे घर या विदेश में बैठकर आसानी से अंजाम दे सकते हैं। अक्सर इनमें भार​तविरोधी ताकतें शामिल रहती हैं जो देश की छवि को धूमिल करने का कोई मौका नहीं छोड़तीं।

केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा इसे विदेशी साज़िश कहना उचित ही है। टूलकिट का मामला वास्तव में बहुत गंभीर है। ऐसे विरोध प्रदर्शन बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के नहीं हो सकते। टूलकिट के रूप में भारत में उपद्रव कराने की पटकथा के रचनाकार वो लोग हैं जो नहीं चाहते कि भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़े। पिछले पांच वर्षों में ऐसे तत्वों की छटपटाहट देखकर समझा जा सकता है कि वे कितने बेचैन हैं।

इनका मकसद है कि भारत की बदनामी हो। इसके लिए ये कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक ऐसे ‘प्रदर्शनकारी’ का वीडियो फिर वायरल हुआ था जो कह रहा था कि अगर आप भारत सरकार से अपनी मांगें मनवाने में सफल नहीं हो रहे हैं तो भी अपने ‘संघर्ष’ को कम न समझें, इससे देश के आर्थिक खजाने को तो चोट पड़ रही है। जब विदेशी निवेशक सोशल मीडिया, टीवी और अखबारों में यह देखेंगे कि भारत में अशांति है, लोग सड़कों पर उतर रहे हैं और आपस में मारपीट कर रहे हैं तो वे यहां निवेश नहीं करेंगे।

हालांकि, यह वीडियो सीएए विरोधी प्रदर्शनों का था, लेकिन इससे इन ताकतों का असली चेहरा बेनकाब होता है। उनके लिए विषय बदल जाता है, फॉर्मूला नहीं बदलता। इस ‘किसान आंदोलन’ ने भी देश का करोड़ों रुपए का नुकसान किया है। फिर इनमें और उन लोगों में फर्क ही क्या रहा जो हर हाल में भारत का अनिष्ट चाहते हैं?

किसान हों या अन्य लोग, देश का संविधान नागरिकों को अपनी आवाज उठाने की अनुमति देता है लेकिन जब उसका उद्देश्य अपनी समस्या बताकर उसका समाधान चाहना नहीं, बल्कि इस बात की उम्मीद करना हो कि इससे शांति व्यवस्था बिगड़े, हिंसा का वातावरण बने और खजाने को चोट पहुंचे, तो देश को इस बात को लेकर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि उन्हें किस हद तक इजाजत दी जाए।

टूलकिट का यह फॉर्मूला अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के दौरान भी देखा गया था, जब ट्रंपविरोध के नाम पर लोग एकजुट हुए और कई शहरों में तोड़फोड़ होने लगी। इन दस्तावेजों में इस बात का जिक्र होता है कि किस तरह अपने प्रदर्शन को परवान चढ़ाया जाए, मीडिया को कैसे आकर्षित किया जाए, किस तरह खुद को पीड़ित की तरह पेश किया जाए और किस तरह ‘एक्शन’ के लिए लोगों को एकजुट किया जाए; यानी उपद्रव की पूरी प्लानिंग।

यह तरीका जम्मू-कश्मीर में उपद्र​वियों की कार्यप्रणाली से काफी मिलता-जुलता है, जिसके तहत वे वॉट्सऐप/टेलीग्राम ग्रुप बनाकर एक-दूसरे तक यह जानकारी पहुंचाते हैं कि कौन पत्थर फेंकेगा, कौन रास्ता रोकेगा और कौन वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करेगा। भारतीयों को सोचना होगा कि कहीं उनका देश किसी टूलकिट की प्रयोगशाला तो नहीं बन रहा! रही बात विरोध प्रदर्शन की, तो वह पहले थी, आज है और आगे भी रहेगी। भारत का संविधान हमें इसकी इजाजत देता है लेकिन यह सब मर्यादा में ही होना चाहिए।

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