सबके श्रीराम
लगभग 350 मुस्लिम श्रद्धालुओं का भगवान के दर्शन करने के लिए आना स्वागत-योग्य है
प्रभु श्रीराम किसी एक समुदाय, एक प्रांत या एक देश के नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के हैं
अयोध्या में श्रीराम मंदिर भारत की आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक तो है ही, यह राष्ट्रीय एकता और सद्भाव का भी दिव्य स्थान है। यहां लगभग 350 मुस्लिम श्रद्धालुओं का भगवान के दर्शन करने के लिए आना स्वागत-योग्य है। प्रभु श्रीराम किसी एक समुदाय, एक प्रांत या एक देश के नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के हैं। उनके मंदिर के द्वार इसी भांति हर उस व्यक्ति के लिए खुले होने चाहिएं, जिसके हृदय में श्रीराम के लिए प्रेम है। सनातन धर्म इसी उदारता पर जोर देता है। ये मुस्लिम श्रद्धालु 150 किमी की पैदल-यात्रा करके आए थे! उन्हीं के शब्दों में - 'इस दौरान आंखों में गर्व के आंसू और जुबान पर 'जय श्रीराम' का नारा था।' ऐसा होना स्वाभाविक है। आज अयोध्या आने वाले श्रद्धालु जिस 'प्रसन्नता' के साथ भगवान की जय-जयकार कर रहे हैं, उसके पीछे पांच सदियों की प्रतीक्षा है। अगर समस्त लोग यह तथ्य समझते और इसे स्वीकार करते कि 'बेशक इतिहास के किसी कालखंड में किसी कारणवश हमने हमारी पूजन-पद्धतियां अलग कर लीं, लेकिन हम हैं तो श्रीराम की संतानें ही, हमारे शरीर में भारतभूमि के दिव्य ऋषियों-मुनियों का खून है', तो आज देश का मानचित्र और माहौल कुछ और ही होता। प्रभु श्रीराम का मंदिर बनने में भी इतना समय नहीं लगता। विदेशी आक्रांताओं ने यहां आकर खून-खराबा करने के अलावा समाज में नफरत के गहरे बीज भी बोए थे। ऐसे बीज, जिनका परिणाम वर्ष 1947 में 'भारत-विभाजन' के रूप में सामने आया था। उन आक्रांताओं ने हमारी संस्कृति और विरासत को खंडित करने की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आज भारत श्रीराम मंदिर में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा कर चुका है, ज्ञानवापी और श्रीकृष्ण जन्मभूमि की अदालती लड़ाई लड़ रहा है, तो वास्तव में यह 'रिक्लेम' (जो कुछ खो गया या अन्यत्र ले जाया गया, उसे वापस मांगना या प्राप्त करना) कर रहा है। इस कार्य के लिए सभी समुदायों को एकसाथ आना चाहिए।
कुछ 'बुद्धिजीवी' यह तर्क देते हैं कि 'विदेशी आक्रांताओं द्वारा किए गए हमले तो सिर्फ राजनीतिक लड़ाई का हिस्सा थे ... उन्होंने आम लोगों की आस्था को ठेस नहीं पहुंचाई, बल्कि बड़ी-बड़ी यादगार इमारतें बनाकर सांस्कृतिक वैभव को समृद्ध किया ... कई सुधार किए ... वे नहीं होते तो न जाने आज भारत कैसा होता!' यह पूर्णत: असत्य और निराधार है। ऐसे कई मंदिर हैं, जिन पर उन्होंने हमले किए थे, उन्हें ढहाया था, प्रतिमाएं खंडित की थीं। उनके चिह्न आज भी देखने को मिल रहे हैं। ऐसे भी मंदिर हैं, जिन्हें बाद में दूसरा रूप दे दिया गया। उन पर बने स्वस्तिक, ऊँ, कलश, हंस, पुष्प आदि मंगल चिह्न देखकर साफ पता चलता है कि कभी यहां मंदिर था। दरअसल, वे आक्रांता ऐसा करके भारतवासियों का मनोबल तोड़ने और अपनी दहशत कायम रखने की कोशिश करते थे। समय बड़ा बलवान है। सत्य हज़ार तालों के भीतर बंद हो, तो भी एक दिन सामने आ जाता है। जहां तक विदेशी आक्रांताओं द्वारा इमारतें बनाकर सांस्कृतिक वैभव को समृद्ध करने का सवाल है, तो मालूम करें कि जिन देशों से वे आए थे, वहां कितनी भव्य इमारतें बनाई थीं और कितने सुधार किए थे? उस कालखंड में भारत में जितनी इमारतें बनाई गईं, वे भारतवासियों की प्रतिभा और मेहनत से बनाई गईं। उन पर भारत के संसाधन खर्च हुए थे। अक्सर कहा जाता है कि 'अंग्रेजों ने भारत में पटरियां बिछाईं, रेलवे प्रणाली दी', जबकि उन्होंने यह कार्य इसलिए किया, ताकि भारत पर अपनी पकड़ मजबूत बना सकें और लूट की दौलत को तेजी से बंदरगाह तक पहुंचा सकें। अगर अंग्रेज भारत नहीं आते, तो भी रेलवे समेत सभी चीजें यहां आतीं। क्या जिन देशों में कभी अंग्रेजों का शासन नहीं रहा, वहां आज रेलवे, बिजली, कंप्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट आदि सुविधाएं नहीं हैं? विदेशी आक्रांताओं का मकसद भारत में लूटमार, अत्याचार, जमीनों व संसाधनों पर कब्जा करना था। उन्होंने तत्कालीन व्यवस्थाओं में रहीं खामियों का फायदा उठाया और यहां जोर-ज़ुल्म से शासन किया था। उनके प्रभाव से बाहर निकलकर अपनी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक पहचान को ढूंढ़ना और आत्मसात करना आज की बड़ी ज़रूरत है। इससे भारत में सद्भाव, प्रेम और एकता को बल मिलेगा तथा सुख-शांति के वातावरण का निर्माण होगा।