ज्ञान के नए द्वार

जब डिजिटल माध्यम का इतनी तेजी से प्रसार हो रहा है तो भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रमों को इस मंच पर ज़रूर उपलब्ध कराना चाहिए

ज्ञान के नए द्वार

आज अंग्रेज़ी के विरोध की नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं को वह प्रतिष्ठित स्थान दिलाने की ज़रूरत है, जिसकी वे हकदार हैं

केंद्र सरकार द्वारा स्कूलों और उच्च शिक्षा संस्थानों को अगले तीन साल के अंदर भारतीय भाषाओं में सभी पाठ्यक्रमों के लिए अध्ययन सामग्री डिजिटल रूप से उपलब्ध कराने का निर्देश स्वागत-योग्य है। आज जब डिजिटल माध्यम का इतनी तेजी से प्रसार हो रहा है तो भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रमों को इस मंच पर ज़रूर उपलब्ध कराना चाहिए। देश-दुनिया के वैज्ञानिकों, विषय विशेषज्ञों के विचारों को डिजिटल स्वरूप में उपलब्ध कराने से विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के नए द्वार खुलेंगे। अभी तक यही समझा जाता रहा है कि डिजिटल माध्यम में अच्छी सामग्री सिर्फ अंग्रेज़ी में उपलब्ध हो सकती है। इस धारणा के पीछे कई वजह हैं। निस्संदेह अंग्रेज़ी वह भाषा है, जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार में बहुत आगे है। इस मामले में अन्य भाषाएं अगर पीछे रह गईं तो इसकी एक वजह यह भी है कि अनुवाद के क्षेत्र में उस स्तर का काम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। यह धारणा भी ग़लत है कि उत्कृष्ट सामग्री का भारतीय भाषाओं या अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई रूसी, मंदारिन, जर्मन, कोरियन जैसी भाषाओं में कैसे संभव है? भारत में स्कूलों और उच्च शिक्षा संस्थानों के पाठ्यक्रम हिंदी और स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हो सकते हैं। उनके अनुवाद पर ठीक तरह से काम करने के बाद डिजिटल स्वरूप में उपलब्ध कराने का सिलसिला शुरू होने पर इसमें सुधार किए जा सकते हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि न तो कोई विद्यार्थी किताबों की अनुपलब्धता के कारण असुविधा का सामना करे और न ही इस वजह से कठिनाई महसूस करे, क्योंकि अध्ययन सामग्री उसकी भाषा में नहीं है।

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शिक्षा, खासतौर से स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों में बहुत सुधार करने की ज़रूरत है। विज्ञान, गणित जैसे विषय, जिन्हें प्रायः कठिन माना जाता है, के पाठ्यक्रमों में रोचकता का समावेश होना चाहिए। इनकी सामग्री ऐसी होनी चाहिए, जो बच्चों में जिज्ञासा और रुचि पैदा करे, विद्यार्थी रटने के बजाय मूल सिद्धांत को समझें। जिन विदेशी वैज्ञानिकों, गणितज्ञों, विशेषज्ञों ने नए सिद्धांत दिए हैं, उनकी मौलिकता बरकरार रखने के साथ उन्हें स्थानीय भाषा में रुचिकर उदाहरणों द्वारा बेहतर ढंग से समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर विज्ञान की कक्षा में प्लम पुडिंग मॉडल को लड्डू या तरबूज सामने रखकर समझाया जाए तो विद्यार्थी उसे ज्यादा रुचि के साथ समझेंगे। हिंदी और स्थानीय भाषाओं में पाठ्यक्रम उपलब्ध कराते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि अगर कहीं अंग्रेज़ी से अनुवाद करना हो तो वह मशीनी अनुवाद न हो। अनुवाद सरल होना चाहिए, कृत्रिमता न झलके। तकनीक की मदद ली जा सकती है, लेकिन पूरी तरह उसी पर निर्भर न रहा जाए। करीब एक दशक पहले किसी विश्वविद्यालय ने अर्थशास्त्र विषय की कुछ किताबों का अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद कराया था। इसके बाद वे किताबें डिजिटल माध्यम से भी प्रस्तुत की गईं, लेकिन उस अनुवाद को पढ़कर विषय को समझना बहुत कठिन था। जिसे अर्थशास्त्र और अनुवाद की थोड़ी-सी भी समझ थी, वह आसानी से पता लगा सकता था कि अनुवाद के नाम पर मशीनी अनुवाद परोस दिया गया। संभवतः जिसे अनुवाद करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, उसने ज़्यादा मेहनत करने के बजाय मूल सामग्री को कॉपी कर इंटरनेट से ‘अनुवाद’ कर दिया। वही किताबों में छप गया और विद्यार्थियों तक पहुंच गया। अब किसी को वह मशीनी अनुवाद समझ में आए या न आए, इससे कोई सरोकार नहीं! इसलिए अध्ययन सामग्री को स्थानीय भाषा में और डिजिटल माध्यम में उपलब्ध कराना ही काफी नहीं है। यह सामग्री अद्यतन हो, सरल हो और रोचक भी हो। अगर इस परियोजना पर ढंग से काम किया गया तो शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाए जा सकते हैं। डिजिटल माध्यम एक विशाल पुस्तकालय बन सकता है, जो हर विद्यार्थी से मात्र कुछ सेकंड की दूरी पर होगा। कोई पाठ याद करना हो या टेस्ट / परीक्षा की तैयारी करना, डिजिटल माध्यम बहुत काम आएगा। हमें इस तरह शिक्षा का भारतीयकरण करना होगा, इंटरनेट का भी भारतीयकरण करना होगा। आज अंग्रेज़ी के विरोध की नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं को वह प्रतिष्ठित स्थान दिलाने की ज़रूरत है, जिसकी वे हकदार हैं।

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