भारत-पाक मीडिया में शब्दों की 'दुर्गति'

पाकिस्तान में शायद ही कोई रिपोर्टर, एंकर होगा, जो हमारे प्रधानमंत्री के नाम का सही-सही उच्चारण कर पाए

भारत-पाक मीडिया में शब्दों की 'दुर्गति'

हमारे मीडिया ने पाकिस्तान के 'कराची' को 'कराँची' और ‘ख़ैबर पख़्तूनख़्वा’ को ‘खैबर पख्तूनवा’ तो बहुत पहले बना दिया!

मीडिया भारत का हो या पाकिस्तान का, उसने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी/उर्दू के कई शब्दों की जिस तरह दुर्गति की है, वह 'बेमिसाल' है। इसमें टीवी वाले और यूट्यूब वाले लोग सबसे आगे हैं।

हालाँकि यूट्यूब के आने से एक अच्छी बात यह हुई कि अब सरहद पार के लोग एक-दूसरे को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझने लगे हैं। (शायद) कुछ लोगों के मन में एक-दूसरे को लेकर नफ़रत में भी कमी आई है, इसलिए शब्दों की इस दुर्गति को (अस्थायी रूप से) माफ़ किया जा सकता है।

मुझे बहुत अजीब लगता है, जब भारत में कोई रिपोर्टर या एंकर कहता/ती है- वहाँ से लोगों को 'जलील' करके निकाला गया है!

'जलील' का अर्थ होता है- प्रतिष्ठित, महान्, मान्य, पूज्य, मोहतरम। ऐसे में किसी को 'जलील' करके कैसे निकाला गया होगा?

मेरे ख़याल में इस तरह कि पहले तो लोगों को अच्छी तरह से चाय-पकौड़े खिलाए गए, कोई मिठाई पेश की गई, शर्बत पिलाया गया। फिर चुपके से 500 रुपए का नोट थमाते हुए कहा गया कि आइंदा भी आते रहिएगा ... अभी तो हम आपको 'जलील' करके निकाल रहे हैं!

यहाँ सही शब्द 'ज़लील' होना चाहिए, जिसका अर्थ है-  भ्रष्ट, अधम, नीच, बेइज़्ज़त।

हिंदी मीडिया, ख़ासकर प्रिंट मीडिया बरसात के मौसम में एक और शब्द को लेकर ग़लती करता है। राजस्थान में तो बड़े-बड़े अख़बारों के पत्रकार ऐसा लिखने लगे हैं। वे भारी बारिश या बाढ़ को भी 'जलजला' (ज़लज़ला) लिख देते हैं, जबकि इसका अर्थ 'भूकंप' होता है। मैंने एक बड़े संपादक को अपने सहयोगी को डाँटते देखा था, जिसने भूकंप से संबंधित ख़बर में 'ज़लज़ला' शब्द लिख दिया था। संपादक महोदय का मानना था कि 'ज़लज़ला' बाढ़ को कहते हैं!

'जलील' और 'ज़लज़ला' के बाद बारी आती है 'ख़िलाफ़त' की। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, वेब ... सब जगह इस शब्द को बहुत ग़लत ढंग से बोला और लिखा जाता है। एक अख़बार ने तो पहले पन्ने पर छाप दिया था- ''बांसवाड़ा में खिलाफत की सजा ...!

यहाँ सही शब्द 'मुख़ालिफ़त' या 'मुख़ालफ़त' आना चाहिए था, जिसका अर्थ- 'विरोध करना' होता है। 'ख़िलाफ़त' का अर्थ है- इस्लामी शासन व्यवस्था, जिसका प्रमुख 'ख़लीफ़ा' होता है।

हमारे मीडिया ने पाकिस्तान के 'कराची' को 'कराँची' और ‘ख़ैबर पख़्तूनख़्वा’ को ‘खैबर पख्तूनवा’ तो बहुत पहले बना दिया!

भारतीय मीडिया के बारे में मेरी ये पंक्तियाँ पढ़कर ऐसा न समझें कि पाकिस्तानी मीडिया में कोई विलियम शेक्सपीयर के मौसाजी बैठे हैं। मुझे तो शक है कि उनके विदेश मंत्रालय के अफ़सरों को भी हिंदी (पढ़नी-लिखनी) नहीं आती होगी। एक पड़ोसी देश, जिसके साथ अतीत में आपके गहरे सामाजिक व सांस्कृतिक संबंध रहे हों, अब चाहे उसे पसंद करें या न करें, उसकी भाषा आपको ज़रूर आनी चाहिए।

मैंने कई पाकिस्तानी रिपोर्टरों, एंकरों को 'वाराणसी' को 'वरणसाई', 'भाषण' को 'भाशन', 'रावण' को 'रावन', 'वेदांत' को 'वेन्दाता', 'हिंदुत्व' को 'हिंदूतवा', 'युधिष्ठिर' को 'युधस्थरा', 'अर्जुन' को 'अरजन', 'नकुल' को 'नकल', 'मंदिर' को 'मंदर', 'मध्य प्रदेश' को 'मधिया परदेश', 'अरुणाचल प्रदेश' को 'अरनाचला परदेश' कहते सुना है।

पाकिस्तान में शायद ही कोई रिपोर्टर, एंकर होगा, जो हमारे प्रधानमंत्री के नाम का सही-सही उच्चारण कर पाए। वहाँ सब लोग 'नरेंदर/नरिंदर मूदी' ही बोलते हैं। इसी तरह वे 'कुलभूषण जाधव' नहीं, बल्कि 'कलबोसन जादेव/यादेव' बोलते हैं। ... और 'ऋषि सुनक' के तो क्या ही कहने! पाकिस्तानियों ने उनका नाम 'रसी/रशी सनक' रख दिया है। पता नहीं ऋषि सुनक जब सुनते होंगे तो कैसे बर्दाश्त करते होंगे!

.. राजीव शर्मा ..

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