उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 'बुके नहीं, बुक दीजिए', का आह्वान कर विभिन्न अवसरों पर दिए जाने वाले उपहारों के संबंध में नई बहस छेड़ दी है। परंपराओं का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होना चाहिए। भारत में तो लोग परंपराओं को लेकर कुछ ज्यादा ही समर्पित हैं। अगर समयानुसार इनके साथ कुछ सकारात्मक बिंदु और जोड़ दें तो इसका असर बहुत गहरा होगा। लोग मेल-मुलाकात और शुभ अवसरों पर उपहार में किताबें देनी शुरू कर दें तो इससे प्राप्तकर्ता को न सिर्फ बौद्धिक लाभ होगा, बल्कि वह उसका प्रसार कर सकेगा। उदाहरण के लिए, दो व्यक्ति किसी अवसर पर मिलते हैं। अगर उनमें से एक व्यक्ति दूसरे को 'स्वरोजगार' को बढ़ावा देने वाली कोई किताब भेंट करता है तो उससे भविष्य में दर्जनों लोग लाभान्वित हो सकते हैं। भारत ज्ञान की भूमि है। भारतवासियों को ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देना चाहिए। अच्छी किताबें, शब्दकोश, पत्र-पत्रिकाएं आदि लोगों के जीवन को दिशा देते हैं। महापुरुषों, वैज्ञानिकों, सुधारकों, क्रांतिकारियों आदि की जीवनी पढ़ने से पता चलता है कि वे किसी-न-किसी किताब से प्रभावित थे। सोशल मीडिया, एआई को किताबों का विकल्प नहीं समझना चाहिए। प्राय: ब्याह-शादियों, जन्मदिन, सालगिरह जैसे अवसरों पर ऐसे उपहारों की भरमार होती है, जो जीवन में ज्यादा काम नहीं आते। कुछ उपहार तो ऐसे होते हैं, जो मात्र औपचारिकता निभाने के लिए दिए जाते हैं। वे उस व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता में कोई योगदान नहीं देते। अच्छी किताबें ऐसा उपहार हैं, जो कई पीढ़ियों को प्रेरणा देकर उनका जीवन संवार सकती हैं।
इनके अलावा भी कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें उपहारस्वरूप देना कल्याणकारी होता है। जैसे- सब्जियों के बीज। बीजों का छोटा-सा पैकेट उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, उसके पूरे परिवार के लिए बहुत लाभदायक हो सकता है। मटर, पालक, मूली, गाजर, लौकी, भिंडी जैसी सब्जियों के अच्छे बीज उपहार में देने की परंपरा शुरू करनी चाहिए। ये बहुत आसानी से उगने वाली सब्जियां हैं, जो भरपूर पोषण देती हैं। केंद्र सरकार मोटे अनाज के उपभोग को बढ़ावा दे रही है। अगर लोग ज्वार, बाजरा से बने उत्पाद उपहार में दें तो करोड़ों किसानों का कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है। आज बाजार में मिलावटी चीजें बहुत बिक रही हैं, जो सेहत को नुकसान पहुंचाती हैं। अगर शुभ अवसरों पर शुद्ध शहद और परंपरागत तरीके से बना गुड़ भेंट करेंगे तो इनका स्वाद कई लोगों की सेहत बनाएगा। खेतों में अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल ने अनाज और दलहन का स्वाद फीका कर दिया है। कई लोग यह बात खुलकर स्वीकार करते हैं कि अस्सी और नब्बे के दशक तक रोटी और दाल में जो स्वाद था, वह अब नहीं है। जब फसल पर हानिकारक रसायनों की बौछार होगी तो उपज में स्वाद कहां से आएगा? अब कुछ किसान पूरी तरह गोबर की खाद से खेती करने लगे हैं। वे कोई हानिकारक रसायन नहीं डालते। क्या उपहार में ऐसी खेती से उपजे अनाज और दलहन दिए जा सकते हैं? इसे एक परंपरा का रूप दे दिया जाए तो लोग फिर से उसी खेती की ओर आकर्षित होंगे, जो मनुष्य और धरती, दोनों के लिए लाभदायक थी। आज दुनियाभर में प्लास्टिक कचरा बढ़ता जा रहा है। इससे कई जगह तो गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं। यह मनुष्य और पशुओं के लिए खतरा बन गया है। इससे निपटने के लिए प्राकृतिक विकल्पों के बारे में सोचना होगा। जूट और कपड़े के थैले बहुत अच्छे विकल्प हो सकते हैं। ये हर घर में इस्तेमाल किए जा सकते हैं। अगर उपहार में ये थैले दिए जाएं तो इससे पर्यावरण संरक्षण को भी बढ़ावा मिलेगा।