तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने संस्कृत को 'एक मृत भाषा' बताकर इस महान भाषा के योगदान और सांस्कृतिक महत्त्व की उपेक्षा की है। संस्कृत के खिलाफ सदियों से षड्यंत्र हो रहे हैं। इसे एक खास वर्ग की भाषा बताकर दुष्प्रचार किया जा रहा है। विदेशी आक्रांताओं ने इसे दबाने और मिटाने के लिए खूब चालें चली थीं, लेकिन नाकाम रहे थे। आज भी कुछ लोग यह कहकर संस्कृत को कमतर साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि इस भाषा की कोई उपयोगिता नहीं है। उन्हें लगता है कि वे ऐसा कहकर प्रगतिशील और बड़े बुद्धिजीवी कहलाएंगे! वे विदेशी भाषाओं का गुणगान करते नहीं थकते। जैसे ही संस्कृत का जिक्र होता है, उन्हें सारी बुराइयां इसी में नजर आने लगती हैं। संस्कृत के बारे में गलत बयान वे लोग देते हैं, जिन्हें इसका ज्ञान नहीं है। संस्कृत को देववाणी यूं ही नहीं कहा गया है। इस भाषा ने हमारी संस्कृति को आकार दिया है। जो लोग इसे 'मृत भाषा' कहते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि इसके दो शब्दों- 'वंदे मातरम्' ने हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में नई ऊर्जा भर दी थी। हजारों क्रांतिकारियों ने इस उद्घोष के साथ बलिदान दिया था। विदेशी आक्रांता जानते थे कि भारत को गुलाम बनाए रखने के लिए इसकी आत्मा पर प्रहार करना होगा, इसलिए उन्होंने संस्कृत पर खूब प्रहार किए थे। उन्होंने इस दुष्प्रचार को हवा दी थी कि इस भाषा में कोरा अंधविश्वास भरा पड़ा है! हिंदी, तमिल, कन्नड़ा, मलयालम, बांग्ला, गुजराती, मराठी ... सभी भाषाएं अच्छी हैं। भारत की सभी भाषाएं सुंदर हैं। क्या किसी भी भाषा को महान बताने के लिए दूसरी भाषा को छोटी या कम महत्त्वपूर्ण बताने की जरूरत है?
संस्कृत की बुराई करने का मतलब है- सभी भाषाओं की बुराई करना। ध्यान रखें, संस्कृत को सभी भाषाओं की मां कहा जाता है। इसकी शब्द रचना, व्याकरण आदि को विदेशी विद्वानों ने सराहा है। दुनिया की अनेक भाषाओं में संस्कृत के शब्द मिलते हैं। उनके कई शब्दों पर संस्कृत का गहरा प्रभाव है। अगर उन भाषाओं से वे शब्द निकाल दिए जाएं तो पीछे क्या बचेगा? संस्कृत ने अन्य भाषाओं को जीवन दिया है। जो लोग यह कहते हैं कि 'संस्कृत सिर्फ विवाह-मंत्र पढ़वाने के काम आती है', उन्हें इसके साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। नाटक, आयुर्वेद, रसायन शास्त्र, संगीत शास्त्र, गणित, खगोल शास्त्र ... संस्कृत ने मानवता की कितनी सेवा की है! अब तो पाकिस्तान में लोग स्वीकार करने लगे हैं कि अगर उनके हुक्मरानों ने चाणक्य का 'अर्थशास्त्र' पढ़कर नीतियां बनाई होतीं तो देश खुशहाल होता। संस्कृत के पीछे इस देश के असंख्य लोगों का तपोबल है। जब यहां मंदिर तोड़े जा रहे थे, पुस्तकालय नष्ट किए जा रहे थे, शिलालेख ध्वस्त किए जा रहे थे, तब भी कई परिवार ऐसे थे, जिन्होंने भिक्षा मांगकर गुजारा किया, लेकिन संस्कृत को मिटने नहीं दिया। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी ग्रंथों को कंठस्थ करते रहे। संस्कृत का संगीत अद्भुत है। कई विदेशी कलाकार संस्कृत में संगीत की प्रस्तुतियां दे रहे हैं। एक ब्रिटिश महिला ने अपना पूरा जीवन ही संस्कृत एवं संगीत को समर्पित कर दिया है। वे संस्कृत के विभिन्न मंत्रों, गीतों, स्तुतियों की बहुत मधुर प्रस्तुति देती हैं। चिंता, अवसाद, बेचैनी, अनिद्रा जैसी समस्याओं से पीड़ित लोगों को उनकी वाणी सुनकर बहुत शांति मिलती है। आज अंग्रेजों की संतानें संस्कृत सीखकर गर्व महसूस कर रही हैं, जबकि कई हिन्दुस्तानियों की संतानें इसे कोस रही हैं। क्या कहेंगे इसे? दुर्भाग्य, अज्ञान या कुछ और? अपनी मातृभाषा पर गर्व करना अच्छी बात है, लेकिन इससे किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह अन्य भाषाओं को मृत घोषित करे। नेतागण सद्भाव पैदा करें, विवाद नहीं।