बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 64 प्रतिशत से ज्यादा मतदान होना मतदाताओं के भारी उत्साह को दर्शाता है। इसके लिए मतदाताओं को बधाई। अभी दूसरा चरण बाकी है। अगर उसमें भी मतदान बढ़ा तो प्रतिशत का आकंड़ा और ज्यादा बढ़कर आएगा। अब दूसरे चरण में दुगुना उत्साह दिखाइए। अभी जो आंकड़े आ रहे हैं, राजनीतिक दल उनके अलग-अलग मायने निकाल रहे हैं। वे यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि जनता-जनार्दन का आशीर्वाद उन्हें ही मिलने जा रहा है। बिहार में किसकी सरकार बनेगी, इसका फैसला तो ईवीएम खुलने पर ही होगा, लेकिन इस बात के मजबूत संकेत मिल रहे हैं कि बिहार का मतदाता राजनीति के धुरंधरों को चकित करने वाला है। जो हारेगा, वह खूब ही हारेगा। जिसकी सरकार बनेगी, उसे भरपूर आशीर्वाद मिलेगा। अगर पिछले विधानसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि बिहार में 60 प्रतिशत से ज्यादा मतदान कम ही देखने को मिला है। साल 2000 में 62.57 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो उच्चतम था। तब राजद सबसे बड़ा दल बनकर उभरा था। उसके बाद मतदान प्रतिशत में काफी गिरावट आई थी। फरवरी 2005 में सिर्फ 46.5 प्रतिशत मतदान हुआ और नतीजा था- खंडित जनादेश। अक्टूबर 2005 में यह आंकड़ा गिरकर 45.85 प्रतिशत रहा और बिहार से राजद का पतन शुरू हो गया था। उसके बाद साल 2010 में 52.73 प्रतिशत, साल 2015 में 56.91 प्रतिशत और साल 2020 में 57.29 प्रतिशत मतदान हुआ था। इस अवधि में (संक्षिप्त व्यवधान के बावजूद) नीतीश कुमार ही सरकार चलाते रहे।
सवाल है- इस बार बिहार में मतदान प्रतिशत में इतना उछाल आने की वजह क्या है? इसकी एक बड़ी वजह छठ पर्व है, जिसे मनाने के लिए प्रवासी बिहारी अपने-अपने घर गए हैं। उन्होंने उत्साह के साथ पर्व मनाया और मतदान भी किया, जिसका असर आंकड़ों में दिखाई दे रहा है। बिहार में चुनाव से पहले एसआईआर के तहत मतदाता सूची को शुद्ध किया गया था। उस दौरान कई मृतकों और अपात्र लोगों के नाम हटाए गए थे। जब शुद्ध मतदाता सूची आई तो मतदान प्रतिशत बढ़ गया। पहले बिहार में मतदान के दौरान भारी हिंसा होती थी। कई बूथों पर बदमाशों की मनमानी चलती थी और आम मतदाता भयभीत महसूस करता था। फर्जी मतदान की घटनाएं भी बहुत होती थीं। अब वैसी स्थिति नहीं रही। चुनाव आयोग ने बहुत अच्छे इंतजाम किए हैं। सुरक्षा बल मुस्तैद हैं। मीडिया की पैनी नजर है। सोशल मीडिया हर जगह है। इससे मतदाता का मनोबल बढ़ा है। लोगों में जागरूकता बहुत आई है। वे समझने लगे हैं कि यह चुनाव सिर्फ नारेबाजी और हार-जीत का नहीं है। यह उनके भविष्य का चुनाव है। प्रवासी बिहारी मजदूर अन्य राज्यों में कई परेशानियों का सामना करते हैं। वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे भी इसी तरह अपना घर छोड़ें और परेशान हों। वे राजनीतिक दलों के वादों और दावों को परख रहे हैं। किसने पूर्व में कैसे कारनामे किए - यह जानने के लिए उन्हें किसी के पास जाने की जरूरत नहीं है। सबकुछ मोबाइल फोन में मौजूद है। बिहार में सबसे बड़ा मुद्दा 'पलायन' का है। शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध नियंत्रण, प्रशासन में पारदर्शिता - जैसे मुद्दे भी हैं, लेकिन मतदाता सोच रहे हैं- हमें रोजगार कौन देगा? पलायन कौन रोकेगा? इस बार बिहार में जो भी दल / गठबंधन सरकार बनाएगा, उस पर जनाकांक्षाओं का काफी दबाव रहेगा। इसलिए राजनेता उतने ही वादे करें, जितने निभा सकें।