सिक्किम सरकार ने सभी सरकारी कार्यालयों में हर बृहस्पतिवार को 'पारंपरिक परिधान दिवस' मनाने की घोषणा कर संस्कृति के संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम बढ़ाया है। यह दिवस स्वदेशी को बढ़ावा देगा और रोजगार के अनेक अवसरों का सृजन करेगा। इसे सरकारी कार्यालयों के अलावा निजी कार्यालयों में भी मनाना चाहिए। इसी तर्ज पर हर हफ्ते या पखवाड़े में एक बार पारंपरिक भोजन दिवस मनाया जा सकता है। उस दिन सभी कर्मचारी अपने राज्यों के पारंपरिक पकवान लेकर आएं। आज स्वाद के नाम पर फास्ट फूड और अत्यधिक गरिष्ठ पदार्थों को बढ़ावा दिया जा रहा है। कई लोग यह सोचकर ऐसा भोजन करते हैं कि वे 'आधुनिक' कहलाएंगे। आधुनिकता का संबंध विचारों से है, जीभ के स्वाद से नहीं है। अगर कोई व्यक्ति कार्यालय में बाजरे की रोटी, काचरे की सब्जी और छाछ-राबड़ी लेकर आता है तो वह भी उच्च शिक्षित और आधुनिक हो सकता है। खानपान में मोटे अनाज को बढ़ावा मिलना चाहिए। हर कार्यालय में एक दिन पारंपरिक बर्तनों के लिए होना चाहिए। आज प्लास्टिक के बर्तनों में चाय, पानी, खाना आदि पेश कर स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जा रहा है। कई डॉक्टर अपने अनुभवों के आधार पर बता चुके हैं कि प्लास्टिक के बर्तनों में गर्म चीज परोसने का मतलब है- रोगों को निमंत्रण देना। हमारे देश में हजारों साल से लोहा, पीतल, कांसा, तांबे के बर्तन इस्तेमाल होते रहे हैं। इनमें विशिष्ट गुण होते हैं। इनकी प्लास्टिक से कोई तुलना नहीं की जा सकती। मिट्टी के बर्तनों और पत्तलों में प्रकृति की अद्भुत सुगंध घुली होती है। अगर सभी कार्यालय पारंपरिक बर्तनों को बढ़ावा देने लग जाएं तो लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है। सोचिए, कार्यालयों और कर्मचारियों के घरों में होने वाले कार्यक्रमों में भोजन के लिए पत्तलों का इस्तेमाल होने लगे तो भारत के कितने किसानों को रोजगार मिल सकता है!
नहाने और कपड़े धोने के लिए साबुन की जरूरत पड़ती है। आज बाजार में इतने साबुन हैं कि सबके नाम याद रखना कठिन है। पहले नीम, शिकाकाई, रीठा, आंवला, खास किस्म की मिट्टी से बने साबुन प्रचलित थे, जिन्हें स्थानीय उद्यमी बनाया करते थे। धीरे-धीरे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बाजार पर कब्जा कर लिया। अगर सभी कर्मचारी यह ठान लें कि वे हफ्ते में कम-से-कम एक दिन पारंपरिक साबुन का इस्तेमाल करेंगे तो यह उद्योग दोबारा खड़ा हो सकता है। स्थानीय उद्यमियों के पास जाने वाला पैसा किसी-न-किसी रूप में लौटकर आपके ही पास आएगा। इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। कार्यालयों में कंप्यूटरों के बढ़ते इस्तेमाल से कर्मचारियों और लोगों को सुविधा हुई है। कलम से लिखने का काम कम हो गया है। हालांकि कलम का इस्तेमाल पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्र हैं, जहां कलम की जरूरत पड़ती है। स्कूलों और कॉलेजों में कागज-कलम की अहमियत बनी हुई है। आज विद्यार्थियों के पास रंग-बिरंगे, महंगे, सुंदर, सजावटी, कई तरह के 'पेन' हैं। अगर इनके साथ एक फाउंटेन पेन भी होता तो वह कई तरह से फायदा पहुंचाता। फाउंटेन पेन से लिखावट सुधरती है। यह स्याही उद्योग को भी बढ़ावा देता है। स्कूलों, कॉलेजों और विभिन्न कार्यालयों में हफ्ते का एक दिन फाउंटेन पेन के नाम होना चाहिए। लोग अपने घरों की स्वच्छता और सजावट का बहुत ध्यान रखते हैं। इसी तरह कार्यालयों का ध्यान रखना चाहिए। आज कई सरकारी कार्यालयों की दीवारें पीक से रंगी हुई हैं। उनमें जगह-जगह मकड़ियों के जाले लगे हैं। उनके मुख्य द्वार पर भी स्वच्छता का अभाव देखने को मिलता है। सभी कार्यालयों में एक दिन स्वच्छता के साथ ही पारंपरिक सजावट के लिए होना चाहिए। उस दिन अल्पना, रंगोली, तोरण, दीपक, लोकचित्र आदि बनाकर कार्यालयों को सुंदर बनाना चाहिए। ऐसे वातावरण का कर्मचारियों और लोगों के मन पर सकारात्मक असर होगा। ये कुछ छोटे-छोटे उपाय हैं, जिनके जरिए हम अपने देश में बड़े बदलाव लेकर आ सकते हैं। क्या कोई कार्यालय इन पर अमल करेगा?