नक्सलवाद का खिसकता आधार

छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भाकपा (माओवादी) के 88 सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया

सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते

नक्सलवाद का खिसकता आधार केंद्र सरकार और सुरक्षा बलों की बड़ी सफलता को दर्शाता है। हाल के वर्षों में कई नक्सलियों का खात्मा हुआ है। वहीं, हथियार छोड़कर मुख्यधारा में आने वाले नक्सलियों की संख्या भी बढ़ी है। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भाकपा (माओवादी) के 88 सदस्यों के आत्मसमर्पण से पता चलता है कि एक ओर जहां नक्सलविरोधी अभियान अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर रहे हैं, वहीं गुमराह होकर ऐसे संगठनों में शामिल होने वाले लोगों को भी हकीकत मालूम हो रही है। कथित क्रांति और इन्साफ के नाम पर नागरिकों को उलटी पट्टी पढ़ाने का यह खेल अब ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। जो लोग बहकावे में आकर अपने ही देश के खिलाफ बंदूक उठा लेते हैं, वे या तो सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे जाते हैं या जंगलों में मारे-मारे फिरते हैं। इससे समाज का कौनसा भला हो जाएगा? क्या तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा, उपद्रव करने से नागरिकों का भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा? हाल में कुछ नक्सलियों ने झारखंड के प. सिंहभूम जिले में एक दूरसंचार कंपनी के मोबाइल टावर को आग लगा दी थी। देर रात नक्सलियों का एक समूह आया, जिसने पहले तो कंपनी के कर्मचारियों को वहां से भगाया, उसके बाद टावर को आग के हवाले कर दिया। इससे किसका नुकसान हुआ? कंपनी की सेवाएं लेने वालों में ज्यादातर आम आदमी थे। नेटवर्क न मिलने से उनके कामकाज बाधित हुए। ये नक्सली स्थानीय लोगों को नुकसान पहुंचाकर किस इन्साफ की बात करते हैं? अगर लोगों के जीवन एवं अधिकारों की इतनी ही परवाह है तो ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जिससे वहां अच्छे स्कूल और अस्पताल खुलें। लोगों के पास रोजगार हो। उनका जीवन आसान हो। तेल छिड़ककर आग लगाने और लोगों का जीवन मुश्किल बनाने में कौनसी महानता है?

जो नक्सली अपने जीवन के कई साल इन संगठनों में बर्बाद कर चुके हैं, उनसे बेहतर इनकी हकीकत और कौन जानता होगा! वे धीरे-धीरे समझ रहे हैं कि इसका नतीजा सिर्फ तबाही है, इसलिए अब तौबा करते जा रहे हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के सामने पांच दर्जन से ज्यादा नक्सलियों का आत्मसमर्पण इसकी एक मिसाल है। इनमें एक ऐसा व्यक्ति भी था, जो युवावस्था में इस विचारधारा से प्रभावित होकर नक्सली बन गया था। वह 50 साल से ज्यादा अवधि तक नक्सली गतिविधियों में सक्रिय रहा। अब 69 साल की उम्र में उसका इन सबसे मोहभंग हो गया। जो व्यक्ति किसी हिंसक विचारधारा का खोखलापन महसूस कर लेता है, उसके मन में कहीं-न-कहीं उससे दूर जाने का विचार जरूर पैदा होता है। जो लोग मुख्यधारा में आना चाहते हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। कहते भी हैं कि सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। हां, उसके बाद यह दृढ़ संकल्प लेना जरूरी है कि दोबारा कोई भूल न हो, किसी के बहकावे में न आएं। इन लोगों को स्वरोजगार का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। स्थानीय लोगों को नसीहत दी जाए कि इनके साथ अच्छा बर्ताव करें और आगे बढ़ने में सहयोग करें। प्राय: हर जगह कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो दूसरों के निजी जीवन के बारे में जानकारी हासिल करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। वे 'तिल का ताड़' बनाते देर नहीं लगाते। वे अपनी टीका-टिप्पणियों से किसी को आहत न करें। इसके अलावा इनकी सुरक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए। नक्सली संगठन उन लोगों से बहुत घृणा करते हैं, जो छोड़कर चले जाते हैं। इनमें भर्ती होना (तुलनात्मक रूप से) आसान है, लेकिन इनसे पीछा छुड़ाकर जाना आसान नहीं है। स्थानीय पुलिस को भी इन लोगों की हर संभव मदद के लिए तैयार रहना चाहिए। सर्वसमाज के योगदान से ही नक्सलवाद को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है।

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