निर्वाचन आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। अब यहां चुनावी माहौल जोर पकड़ेगा। राजनेता अपनी रैलियों में ताकत झोंकेंगे, बड़े-बड़े वादे करेंगे। कहीं जातिगत समीकरण बैठाने की कोशिशें की जाएंगी, तो कहीं ध्रुवीकरण के दांव चले जाएंगे। इन पर निर्वाचन आयोग की नजर रहेगी और नियमानुसार कार्रवाई भी की जाएगी, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावी कार्रवाई मतदाता ही कर सकते हैं। इस चुनाव में जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर विकास के लिए मतदान करें। राजनेताओं के वादों पर आंखें मूंदकर विश्वास न करें। उनका रिकॉर्ड भी देखें। किस उम्मीदवार ने पहले कितनी जनसेवा की है, उसका योगदान क्या है, वह क्षेत्र में कब से सक्रिय है, सर्वसमाज के प्रति उसकी सोच क्या है, बिहार के विकास के लिए उसके पास रोडमैप क्या है, वह देश की एकता एवं अखंडता के संबंध में क्या सोच रखता है - जैसे तमाम सवालों पर गौर जरूर करें। बिहार की राजनीति में जाति एक हकीकत है। इसे नकारा नहीं जा सकता। यह एक शिनाख्त की हद तक ठीक है, लेकिन इसके आधार पर न तो किसी के साथ भेदभाव होना चाहिए और न ही इसकी वजह से समाज में फूट पड़नी चाहिए। जब किसी इलाके में अच्छा स्कूल बनता है तो उसका फायदा सभी जातियों को होता है। जब कोई अच्छा अस्पताल बनता है तो उससे सभी जातियों के लोग स्वास्थ्य-लाभ पाते हैं। जब लोगों को रोजगार मिलता है तो उस धन का प्रवाह अनेक घरों तक होता है। आज बिहार में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है। इसकी वजह से लोग अन्य राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं।
जो राजनीतिक दल अब तक सत्ता में रहे हैं, उनसे ये सवाल जरूर पूछें- आपने पलायन रोकने के लिए क्या किया? अगर चुनाव जीत गए तो ऐसा क्या करेंगे कि युवाओं को यहीं रोजगार मिल जाएगा? कुछ राजनेता अपना वोटबैंक पक्का करने के लिए खास शिगूफे छोड़ते रहते हैं। इनसे उन्हें भरपूर तालियां मिलती हैं। उनकी दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी यही कर रही है। ये उन्हीं पुराने शिगूफों से जनता का क्या भला करेंगे - इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। चुनावों में राजनेताओं की भी कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। उन्हें अपने भाषणों में शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। अभद्र और अशालीन शब्दों के प्रयोग से कोई बड़ा राजनेता नहीं बन जाता। अब सोशल मीडिया का ज़माना है। जो व्यक्ति गलत बयानबाजी करेगा, उसका सबूत कुछ ही मिनटों में वायरल हो जाएगा। भाषण देते समय असंभव वादे न करें। अब जनता उस राजनेता को ज्यादा भरोसेमंद मानती है, जो 'ना' कहना जानता है। सिर्फ उन कार्यों के लिए 'हां' कहें, जो कर सकते हैं। आसमान से तारे तोड़ लाने की बातें न करें। जनता ऐसे वादों को हास्यास्पद समझने लगी है। राजनेताओं को चाहिए कि वे रोजगार के अवसरों के संबंध में कोई घोषणा करने से पहले तथ्यों का अध्ययन जरूर करें। अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी बनी हुई है। चुनावी मौसम में उन्हें लुभाने के लिए कोई दल आरक्षण बढ़ाने की बात कहता है, कोई पदों की संख्या बढ़ाने का वादा करता है। सवाल है- सरकारी नौकरियां हैं कितनी? क्या कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद हर युवा को सरकारी नौकरी दे सकता है? क्या बिहार के पास इतना बजट है? राजनेता जनता को हकीकत बताएं। इतने युवाओं को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं है। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देकर ही रोजगार के अवसरों का सृजन किया जा सकता है। इसके लिए ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जो निवेश को आकर्षित करें। भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना होगा। अपराधों पर लगाम लगानी होगी। राजनेता ये मुद्दे उठाएं। अगर वे न उठाएं तो मतदाता पहल करें। अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए आप नहीं बोलेंगे तो और कौन बोलेगा?