तमिलनाडु के करूर में टीवीके प्रमुख विजय की रैली में भगदड़ से 40 से ज्यादा लोगों की मौत होने की घटना अत्यंत दु:खद है। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि उत्साह और खुशियों का माहौल अगले ही पल मातम में बदल जाएगा। देश में हर साल भगदड़ की घटनाएं हो रही हैं। इन पर टीवी डिबेट होती हैं, सोशल मीडिया पर पोस्ट चलती हैं, 'किसी को बख्शा नहीं जाएगा' - जैसे बयान सुनने को मिलते हैं, आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते हैं, मुआवजा बंटता है। उसके बाद बात आई-गई हो जाती है। फिर किसी भगदड़ का इंतजार किया जाता है। क्या आम आदमी की जान की इतनी ही कद्र है? क्या सरकारों को ऐसी घटनाओं से सबक लेकर कुछ ठोस कदम नहीं उठाने चाहिएं? आज सरकारों के पास तकनीकी साधनों की कमी नहीं है। क्या वे भीड़ प्रबंधन को बेहतर नहीं बना सकतीं? बार-बार आम आदमी ही पिसता और मरता है। आखिर सरकारें कब जागेंगी और कब लोगों की सुध लेंगी? कुछ राजनेताओं ने तो चुनावी राजनीति को ही सबकुछ समझ लिया है। वे तस्वीरों और वीडियो में भीड़ दिखाकर वाहवाही पाना चाहते हैं कि यह है हमारा जलवा! आम आदमी की फिक्र कौन करे? बेशक लोकतंत्र में चुनावी रैलियों का महत्त्व है। ऐसे आयोजनों से राजनीतिक समझ बढ़ती है और जनमत का निर्माण होता है। देश की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करने के लिए ऐसी रैलियां बहुत बड़ा माध्यम साबित हो सकती हैं। राजनेताओं और पार्टियों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ भीड़ जुटाने पर जोर न रहे।
लोगों की जान आपके चुनाव प्रचार से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जो परिवार ऐसे आयोजनों में अपने सदस्यों को गंवाते हैं, क्या उनकी भरपाई संभव है? राजनेताओं को ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाकर अपनी लोकप्रियता का प्रदर्शन करने से कुछ परहेज करना चाहिए। आयोजन स्थल की जितनी क्षमता हो, उससे कम ही भीड़ इकट्ठी करें। अपने निमंत्रण पत्रों और सोशल मीडिया पोस्ट्स में इस बात का साफ उल्लेख करना चाहिए कि हमारे लिए वोट से ज्यादा जरूरी आपका जीवन है, इसलिए आयोजन स्थल की क्षमता से ज्यादा लोगों को प्रवेश नहीं दिया जाएगा। जो लोग वहां न आ सकें, वे सोशल मीडिया पर भाषण सुन सकते हैं। चुनावी रैलियों में पार्टियों एवं राजनेताओं के झंडे, पोस्टर, बैनर के साथ-साथ ताजा हवा, पानी और प्राथमिक चिकित्सा जैसे इंतजाम जरूर करने चाहिएं। पर्याप्त संख्या में एंबुलेंस और दमकल की व्यवस्था करना न भूलें। यह सोचकर अति-आत्मविश्वास नहीं पालना चाहिए कि पिछली रैलियों में कोई हादसा नहीं हुआ था तो आगे भी नहीं होगा। प्राय: भीड़ में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनका पूरा जोर व्यवस्था बिगाड़ने पर होता है। वे धक्का-मुक्की करते हैं, हुड़दंग का माहौल बनाते हैं, चीखते हुए ऐसी हरकतें करते हैं कि अन्य लोग भी उनके उकसावे में आएं। इसके बाद एक सिलसिला बन जाता है और व्यवस्था इस तरह बेपटरी होती है कि रंग में भंग पड़ जाता है। ऐसे लोगों पर सीसीटीवी कैमरों और ड्रोनों आदि से नजर रखनी चाहिए। उन्हें फौरन बाहर निकाल देना चाहिए। उनकी गलत हरकतों की कीमत अन्य लोग क्यों चुकाएं? हाल के वर्षों में धार्मिक स्थलों पर भगदड़ की कई घटनाओं में ऐसे लोगों की भूमिका रही, जिन्होंने आगे बढ़ने के लिए धक्का-मुक्की करते हुए व्यवस्था बिगाड़ी थी। जब एक बार भगदड़ मच जाती है तो उसे तुरंत रोकना बहुत मुश्किल होता है। उस समय हर कोई अपनी जान की परवाह करता है। पैरों तले कौन है, इसकी ओर ध्यान नहीं जाता। सरकारों को इन घटनाओं से सबक लेते हुए ऐसी व्यवस्थाओं का निर्माण करना चाहिए, जहां न तो कोई भगदड़ मचे और न किसी की जान जाए।