गदग/दक्षिण भारत। राजस्थान जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में जीरावला पार्श्वनाथ सभागृह में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए आचार्य विमलसागरसूरीजी ने कहा कि धर्म और संस्कृति की परंपराओं को पवित्र व जीवंत रखना अत्यंत आवश्यक है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य की सबसे अधिक जिम्मेदारी उस धर्म के आचार्यों, संतों और नायकों की है।
धर्म जब अलग-अलग पंथों व मान्यताओं में खंड-खंड बिखर जाता है और उसके रक्षक धर्माचार्य, संत या नायक जब उदासीन एवं स्वकेन्द्रित बन जाते हैं तो धर्म की परंपराएं मलिन बनने लग जाती हैं। एक समय ऐसा आता है कि हमारी गौरवशाली परंपराएं खंडित या नष्ट हो जाती हैं, इसी तरह सांस्कृतिक ह्रास होता है।
इतिहास साक्षी है कि धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए पूर्व के धर्माचार्यों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं। आधुनिक युग धर्माचार्यों एवं धर्मनायकों के लिए सबसे कठिन चुनौतियों का समय है। इधर भरपूर तकनीकी विकास हो रहा है। सोशल मीडिया का प्रसार-प्रचार चरम पर है।
ऐसे में पश्चिम की हवा सभी को प्रभावित कर रही है और वहां के अंधानुकरण में धर्म व संस्कृति की प्राचीन परंपराओं को सुरक्षित रखना अब बहुत मुश्किल हो गया है। कभी-कभी ऐसा लग रहा है कि पश्चिम के समक्ष पूरब हार जाएगा। नवरात्रि का पर्व इसका ज्वलंत उदाहरण है।
जैनाचार्य ने चिंता जताते हुए कहा कि डांडियों के आधार पर अब नवरात्र त्योहार नाच-गान और मजाक-मस्ती का इवेंट बन गया है। अनेक संस्थाएं, कंपनियां और श्रद्धाभ्रष्ट लोग इसमें कूद गए हैं। संपूर्ण त्योहार को हाइजेक कर लिया गया है।
नवरात्र की मूल भावना और रहस्यों की किसी को परवाह नहीं है। अधिकतर लोगों को नवरात्र के बारे में कुछ भी पता नहीं है। उनके लिए यह एक एंजॉय करने का अवसर है, जिसकी युवक-युवतियां महीनों से प्रतीक्षा करते हैं। समग्र हिन्दू समाज और उनके धर्माचार्य इस संदर्भ में उदासीन रहे हैं।
कुछ वर्षों बाद यह पूरी तरह भुला दिया जाएगा कि नवरात्र हिन्दू परंपरा का कोई ऐतिहासिक त्योहार था भी, इस कदर सांस्कृतिक पतन होता जा रहा है। मासूम निर्दोष कन्याओं में विवेक के अभाव और उनके परिवारजनों की लापरवाही के चलते नवरात्र के डंडियों के कारण हजारों जिंदगियां दुराचार के पथ पर अग्रसर हो रही हैं।
अनेकानेक विवाहिताओं के जीवन बर्बाद हो रहे हैं। विवाहेतर संबंध बनते जा रहे हैं। इन सबके सर्वेक्षण खतरनाक भविष्य के संकेत दे रहे हैं। सदाचार का यह पतन समग्र समाज के लिए भयावह और दुःखदायी है। यह भारतीय सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं का विनाश कर देगा। नवरात्र के डांडियों के आयोजकों और प्रायोजकों को सामाजिक सुरक्षा, उन्नति या सदाचार की कोई चिंता नहीं है। पूरे त्योहार का व्यवसायीकरण कर दिया गया है। रुपया, नाचगान, उन्मुक्तता और एन्जॉय ही भगवान है, ऐसा मान लिया गया है।
इस विकट परिस्थिति में धर्मनायक और धर्म की बड़ी-बड़ी संस्थाएं निद्राधीन लगती हैं। कोई कहीं आवाज नहीं उठा रहे हैं। जैसा चल रहा है, सब उसे चलने दे रहे हैं। इस संदर्भ में इस्लाम, ईसाईयत, यहूदी और सिक्ख समाज से सीखने जैसा है। वे अपने धर्म और संस्कृति की मूल परंपराओं को न तो बदलते हैं और न ही किसी को बदलने देते हैं।
आज यदि पूछा जायें कि नवरात्र की प्राचीन परंपराओं को जीवंत रखने का दायित्व किसका है तो उत्तर मिलेगा कि इसका कोई मालिक या दिशानिर्देशक नहीं है। जिसको जैसा मन मे आए, वैसा किया जा सकता है।
आचार्य विमलसागरसूरीजी ने कहा कि नव दैविक शक्तियों की व्रत-उपासना और आराधना के लिए नवरात्रि का पर्व हैं। यह सत्व, शक्ति, सदाचार, पवित्रता और मंगल-कल्याण का पर्व है। वैदिक और जैन शास्त्रों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि मंत्रों और दैविक शक्तियों की साधना के लिए नवरात्रि सर्वश्रेष्ठ समय होता है।
सात्विक आहार, शुद्ध विचार और ब्रह्मचर्य पूर्वक इन दिनों साधना कर सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। ऐसे मंगलकारी दिनों को उद्भट वस्त्र परिधान, ... के साथ देर रात तक नाच, गाना, असात्विक आहार और अपवित्र विचारों के साथ एन्जॉय करना कितना निकृष्ट, पापप्रद, भयानक और दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रत्येक हिन्दू को हर हालत में नवरात्र को पवित्र रखने का आंदोलन चलाना चाहिए, तभी हमारी संस्कृति और धर्म की रक्षा संभव हो सकेगी।