राग-द्वेष की अधिकता से होते हैं विवाद, रोग, विषाद और मनोरोग: आचार्य विमलसागरसूरी

ज्यों-ज्यों किसी के प्रति राग बढ़ता है, त्यों-त्यों द्वेष भी बढ़ता है

मनुष्य की सहनशीलता घटती जा रही है

गदग/दक्षिण भारत। शहर के राजस्थान जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में जीरावला पार्श्वनाथ सभागृह में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए आचार्य विमलसागरसूरीजी ने कहा कि राग और द्वेष से पूरी तरह मुक्त हो जाना आध्यात्मिक साधना की सिद्धि है, लेकिन यह सरल नहीं है। गृहस्थ हो या कोई संत, किसी की भी जिंदगी में ऐसी उपलब्धि बहुत मुश्किल है। 

फिर भी हर व्यक्ति को अपने रागात्मक और द्वेषात्मक भावों को क्षीण बनाने के प्रयोग और प्रयास हमेशा करने चाहिए। आध्यात्मिक उन्नति और शांति का यही मार्ग है। वर्तमान युग में जहां देखो वहां विवाद, विषाद, संबंध विच्छेद, मनोरोग और आत्महत्याओं की घटनाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। मनुष्य की सहनशीलता घटती जा रही है। बदले की भावना तीव्रतम होती जा रही है। इच्छाओं, तृष्णाओं और वासनाओं का अंतहीन विस्तार होता जा रहा है। 

ये सब रागात्मक और द्वेषात्मक भावों की प्रगाढ़ता के दुष्परिणाम हैं। किसी भी निमित्त को पाकर ज्यों-ज्यों राग-द्वेष की मनोवृत्तियां पोषित होती हैं, त्यों-त्यों जीवन की सुख-शांति और जीवित रहने की संभावनाएं क्षीण होती जाती हैं, इसलिए चाहे रागात्मक हों या द्वेषात्मक, निमित्तों को टालने का लक्ष्य होना चाहिए।

जैनाचार्य ने कहा कि जीवन की नियति खेल और संसार का करुण स्वरूप ऐसा ही है कि परपदार्थों की आशा अक्सर निराशा में बदल जाती है। जो जितना दूसरों पर निर्भर बनता है, उतना ही परेशान होता है। इसीलिए बार-बार अपनी चित्तवृत्तियों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। नकारात्मक विचारों से मुक्त होकर ही शांति से जीने के उपाय ढूंढ़े जा सकते हैं। जब तक यह अभ्यास नहीं होगा, तब तक सारी डिग्रियां और उपलब्धियां बेकार हैं। जब जीवन में भीतर ही भीतर राग-द्वेष की आग धधक रही हों तो बाहर की शीतलता कोई मायने नहीं रखती। 

जैनाचार्य ने कहा कि राग हो या द्वेष, दो में से किसी की भी अधिक मात्रा दुःखदायी है। उससे जीवन का संतुलन बिगड़ जाता है। भगवान महावीरस्वामी ने राग-द्वेष को भवरोग कहा है। जन्म, मरण, दुःख, दुर्गति, सभी में ये दोनों तत्व ही मुख्य कारण हैं। चरक ऋषि ने कहा है कि राग-द्वेष से रोगों का जन्म होता है। अगर हम रोगमुक्त जीवन चाहते हैं तो उसे सर्वप्रथम राग-द्वेष को क्षीण करना जरूरी है।

गणि पद्मविमलसागरजी ने बताया कि ज्यों-ज्यों किसी के प्रति राग बढ़ता है, त्यों-त्यों द्वेष भी बढ़ता है। अमून राग कम दिखाई देता है। उसे छिपाया जा सकता है, लेकिन द्वेष स्पष्ट दिखाई दे जाता है। वह ज्यों-ज्यों इक्कट्ठा होता है, त्यों-त्यों वैराणुबन्ध बन जाता है। उसके बाद कितने ही जन्मों तक वह हमारा पीछा नहीं छोड़ता। 

जैन संघ के निर्मल पारेख ने बताया कि सभा में पूर्वी भारत के सम्मेत शिखर, चंपापुरी, क्षत्रियकुण्ड, लछुवाड़, काकंदी आदि अनेक प्राचीन तीर्थों का संचालन कर रही जैन श्वेतांबर सोसाइटी के अध्यक्ष कमलसिंह रामपुरिया विशेष रूप से आचार्य विमलसागरसूरीश्वर के आशीर्वाद ग्रहण किए। रामपुरिया ने इन प्राचीन कल्याणक तीर्थभूमियों से सम्बंधित अनेक जानकारियां समाज को दीं।

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