बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के चिकपेट स्थित आदिनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित मुनि आर्यशेखरविजयजी के पर्युषण महापर्व के पहले दिन अपने प्रवचन में कहा कि तीर्थ यात्रा के लिए हमेंतीर्थ तक तक जाना पड़ता है, जबकि पर्व हमारे द्वार पर आते हैं, हमें कहीं जाना नहीं पड़ता। ऐसे पर्युषण पर्व का हमें भरपूर लाभ उठाना चाहिए और अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए। पर्वों में सबसे बड़ा पर्व है पर्युषण महापर्व, जिसे क्षमापना पर्व भी कहा जाता है।
पर्युषण पर्व में अष्टान्हिका ग्रंथ पर प्रवचन होते हैं जिनमें इन दिनों में करने योग्य पांच कर्तव्य बताए गए हैं। पहला अमारी यानी किसी को मारना नहीं सभी जीवों को बचाना। दूसरा साधर्मिक भक्ति यानी जिनेश्वर भगवान को मानने वाले साधर्मिक भाई-बहनों का सम्मान करना, तीसरा अठम तप अर्थात तीन दिन उपवास करना (केवल गरम उबला हुआ पानी पीना)। चौथा क्षमापना यानी मिच्छामि दुक्कड़म करते हुए सभी को माफ करना और पांचवां चैत्य परिपाटी अर्थात जिन मंदिरों की यात्रा, दर्शन, पूजन करना।
संतश्री ने कहा कि अष्टान्हिका ग्रंथ में कदैया, भदैया, सदैया तीन प्रकार के मनुष्य बताए गए हैं। कभी कभी धर्म करने वाला कदैया, श्रावण-भादों में धर्म करने वाला भदैया और सदा धर्म आराधना करने वाला सदैया होता है।
अमारी कर्त्तव्य पर संतश्री ने कहा कि अमारी या अहिंसा यानी किसी को मारना नहीं। हमें कर्म, वचन, काया व भाव से भी हिंसा नहीं करना चाहिए। सभी जीवों व प्राणियों पर दया करना अहिंसा है। दया धर्म का मूल है। क्षमापना की बात समझाते हुए कहा कि जैसे धागे में गांठ होगी तो सुई में प्रवेश नहीं होगा वैसे ही मन में अगर बैर की गांठ होगी तो प्रेम ओर स्नेह नहीं होता।
नफरत का भाव जीवन को अशांत बना देता है। क्षमादान हर घाव को ठीक कर देता है। स्वाध्याय करना अच्छा है लेकिन किसकी निंदा न करना भी अच्छा गुण है। आयंबिल का तप करना स्वास्थ्य के लिए लाभ कारक तो है ही, इसी प्रकार होटल का त्याग करना भी आरोग्य के लिए उत्तम है।