हर साल स्वतंत्रता दिवस के आस-पास 'भारत विभाजन' के जिम्मेदारों पर खूब चर्चा होती है। सोशल मीडिया पर बहुत लोग यह कहते मिल जाते हैं कि 'काश, विभाजन न होता, लोगों के घर न उजड़ते और लाखों लोगों को जान न गंवानी पड़ती।' वे ऐसे राष्ट्र के निर्माण का संकल्प दोहराते हैं, जिसमें भारत के साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश को शामिल कर लिया जाए। यह उनकी एक नेक भावना हो सकती है। इसके साथ ही उन्हें स्पष्टता की बहुत जरूरत है। हम विभाजन को नहीं भुला सकते, लेकिन अब हमें इससे आगे बढ़ना होगा। हमें उस मुकाम पर पहुंचना होगा, जहां भारत सबसे ज्यादा शक्तिशाली और समृद्ध देश हो। वर्ष 1947 में जिस तरह हमारे देश का विभाजन किया गया, उसके लिए अंग्रेजों ने बहुत पहले ही मंसूबा बना लिया था। उन्होंने जिन्ना को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया, जो अति महत्वाकांक्षी थे। एक तरफ जहां महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल जैसे नेता राष्ट्रीय एकता पर जोर दे रहे थे, वहीं जिन्ना और उनकी मंडली ने इतनी ज्यादा नफरत फैला दी थी कि विभाजन होना ही था। उन्हें अंग्रेजों का आशीर्वाद जो प्राप्त था! बहुत कम लोगों को पता होगा कि जिन्ना एक ज़माने में अभिनेता बनना चाहते थे। उन्होंने स्टेज ड्रामों में भाग लिया था, लेकिन अपने पिता की फटकार के बाद वकालत में रुचि लेनी शुरू की थी। अब पाकिस्तानी शोधकर्ता यह स्वीकार करने लगे हैं कि जिन्ना ने अंग्रेजों के इशारों पर ऐसा अभिनय किया था कि बहुत लोगों ने उनके वादों को सच मान लिया था। जिन्ना के सामने जैसा व्यक्ति आया, उन्होंने उससे वैसा ही वादा कर दिया था।
विभाजन के दौरान पाकिस्तान जाने वाले ज्यादातर लोगों को यह भ्रम था कि नया मुल्क बहुत खुशहाल होगा, वहां कोई अभाव नहीं होगा, सबके साथ इन्साफ होगा, शांति होगी, बहुत मज़े से ज़िंदगी गुजरेगी। आज के पाकिस्तान को देखकर वे अपना माथा पीटते होंगे, जहां आए दिन बम फूट रहे हैं। वर्ष 1947 तक हालात इतने ज्यादा बिगड़ चुके थे कि अगर विभाजन का फैसला स्वीकार नहीं किया जाता तो रियासतों के एकीकरण में बहुत बाधा आती, शासन चलाना मुश्किल हो जाता। विभाजन मुख्यत: दो परिस्थितियों में टल सकता था- अगर देशवासियों में इतना गहरा मेलजोल होता कि वे खुद ही इसे साफ शब्दों में नकार देते अथवा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज पूरी फतह हासिल करते हुए लाल किले पर झंडा फहरा देती। नेताजी राष्ट्रवाद के महान समर्थक थे और बहुत लोकप्रिय थे। वे देशवासियों को एकजुट रख सकते थे और विभाजन की साजिश को विफल कर सकते थे। उन्होंने आज़ाद हिंद फौज के जरिए दिखा दिया था कि लोग जातिवाद, मजहब, प्रांतवाद, भाषावाद आदि से ऊपर उठकर भारत के लिए एकजुट हो सकते हैं। जिन्ना के पास पाकिस्तान के लिए कोई विज़न नहीं था। मुल्क कैसा होगा, किसकी क्या भूमिका होगी, शासन कैसे चलेगा - जैसे बुनियादी सवालों के बारे में उन्होंने कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए थे। जिन्ना का देहांत होते ही पाकिस्तानी नेताओं में जमकर सिर-फुटौवल शुरू हो गई थी, जो आज तक जारी है। इसका फायदा पाकिस्तानी फौज ने उठाया। वह अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए भारत से नफरत को बढ़ावा देती है। आज एक आम पाकिस्तानी का इतना ब्रेन वॉश हो चुका है कि उसे भारत में अपना दुश्मन नजर आता है। इस पड़ोसी देश के कितने ही कथित उदारवादी बुद्धिजीवी हिंदुत्व की निंदा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। उन्हें सनातन धर्म, वेदों, अवतारों, ऋषियों आदि के बारे में कुछ भी मालूम न हो, लेकिन वे सबके बारे में एक ही धारणा रखते हैं। क्या ऐसे हालात में संबंध सुधर सकते हैं? हमें विभाजन से सबक लेते हुए भारत को हर मोर्चे पर इतना मजबूत बनाना चाहिए कि वह दुनिया का नेतृत्व करे। जहां तक 'अखंड भारत' बनाने का सवाल है, तो एकीकरण की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। जर्मनी इसकी मिसाल है।