प्रभु की भक्ति निष्काम भाव से करनी चाहिए: संत वरुणमुनि

'भक्त के हृदय में ईश्वर का वास ऐसे ही समझो जैसे फूल में सुगंध'

भक्ति के मार्ग में सर्वप्रथम बालक के समान सरल हृदय और निष्कपटता होनी चाहिए

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के गांधीनगर गुजराती जैन संघ में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय उपप्रवर्तक पंकजमुनिजी की निश्रा में डॉ. वरुणमुनिजी ने कहा कि प्रभु की भक्ति निष्काम भाव से करनी चाहिए। 

उन्होंने कहा कि जो मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी प्रभु की भक्ति धर्म की आराधना नहीं करते हैं। वे मनुष्य होकर भी पशु समान है। जिसके द्वारा भजन किया जाए और अपने मन को प्रभुमय बना लिया जाए उसे भक्ति कहते हैं। भक्त के हृदय में ईश्वर का वास ऐसे ही समझो जैसे फूल में सुगंध। 

मुनिश्री ने भक्तामर स्तोत्र के माध्यम से विवेचना करते हुए कहा कि प्रभु की भक्ति ऐसे लगन, समर्पण भावों के साथ अत्यंत श्रद्धा भावों के साथ होनी चाहिए, जैसे मानतुंग आचार्य जी ने प्रथम तीर्थंकर परमात्मा भगवान श्री ऋषभदेव की स्तुति की थी जिसने उन्हें भक्त अमर बना दिया। 

भक्ति के मार्ग में सर्वप्रथम बालक के समान सरल हृदय और निष्कपटता होनी चाहिए, तभी भक्त का भगवान से सच्चा साक्षात्कार हो सकता है। भक्ति भक्त को साक्षात ईश्वर बना देती हैं। भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तृत मार्ग बतलाया गया है। भक्ति चरित्र का निर्माण करती है और भक्ति ही आत्म मैल को साफ कर आत्मा को निर्मल शुद्ध पवित्र बना देती है। 

उन्होंने कहा कि भगवान द्वारा बताए मार्ग का अनुसरण करना ही सच्ची भक्ति का रूप है। प्रारंभ में रूपेश मुनि जी ने भावपूर्ण रचना प्रस्तुत की। उपप्रवर्तक श्री पंकज मुनि जी महाराज ने सबको मंगल पाठ प्रदान किया। कार्यक्रम संचालन राजेश मेहता ने किया। इस अवसर पर समाज के अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

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