उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में बादल फटने से हुई जन-धन की हानि अत्यंत दु:खद है। सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे घटना के वीडियो देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाढ़ के साथ जिस तरह भारी मात्रा में मलबा बहकर आया, उसने कुछ ही सेकंडों में सबको अपनी चपेट में ले लिया। बड़ी-बड़ी इमारतें धराशायी हो गईं। इस घटना ने जून 2013 में केदारनाथ धाम में आई प्राकृतिक आपदा की यादें ताजा कर दीं। क्या हम हर बार यह भांपने में विफल हो रहे हैं कि पहाड़ों का मिज़ाज बदल रहा है? वहां प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन, बहाव क्षेत्र में बसावट, पर्यावरण प्रदूषण के कारण बाढ़, भूस्खलन की घटनाओं से बहुत हानि हो रही है। पहाड़ों में बाढ़ पहले भी आती थी, लेकिन तब पानी बहाव क्षेत्र से होते हुए नीचे चला जाता था। अब बसावट बहुत हो गई है। होटल और होम स्टे की संख्या बढ़ गई है। हर साल गर्मियां शुरू होते ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की ओर जाने वाली सड़कों पर वाहनों की लंबी कतारें लग जाती हैं, जिनमें लोग कई-कई घंटे फंसे रहते हैं। वे अपने शहरों की चिलचिलाती धूप से कुछ राहत पाने के लिए पहाड़ों का रुख करते हैं। यह देखकर ताज्जुब होता है कि वहां भी कमरों में एसी चलाते हैं! पहाड़ों पर प्लास्टिक का कचरा भी बहुत फैलाया जा रहा है। जब कोई इस पर आपत्ति जताता है तो कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि 'हमने हर चीज का पैसा दिया है, आनंद तो प्राप्त करेंगे ही!' पर्यटन के लिए जाना अच्छी बात है, लेकिन उसके लिए खास समय होना चाहिए। जानकार बताते हैं कि खूब बारिश के मौसम में पहाड़ों में जाएं तो सावधानी बरतें, क्योंकि पानी गिरने से पत्थर की पकड़ ढीली हो जाती है। बेहतर तो यह होगा कि इस मौसम में न जाएं।
पहले, पहाड़ों पर इतना कचरा नहीं होता था, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम होता था, पेड़-पौधे खूब होते थे, जिससे भूस्खलन कम होता था। कुछ घटनाएं होती भी थीं तो वहां बसावट न होने से जनहानि की आशंका कम होती थी। हमें पहाड़ों के बदलते मिज़ाज को समझना होगा। प्रकृति बाढ़ और भूस्खलन के जरिए जो संकेत दे रही है, उन पर ध्यान देना होगा। बहाव क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण नहीं होना चाहिए। कहते हैं कि पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। वह सदियों बाद भी उसे ढूंढ़ लेता है। पहाड़ी ही नहीं, मैदानी इलाकों में ऐसी कई घटनाएं देखने को मिलती हैं कि किसी जगह वर्षों तक बाढ़ नहीं आई और लोगों को बहाव क्षेत्र की जानकारी नहीं रही। इस दौरान जगह-जगह इमारतें बना लीं। अधिकारियों की सुस्ती और भ्रष्टाचार के कारण अतिक्रमण हुआ। एक दिन अचानक बादल खूब बरसे और पूरा इलाका जलमग्न हो गया। पानी और इन्सान के लिए निकलने का रास्ता नहीं बचा। हमें प्रकृति का सम्मान करना होगा। आज जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे पहाड़ी और मैदानी, दोनों इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का यह कहना चिंता बढ़ाता है कि पिछले कुछ वर्षों से बर्फबारी की मात्रा कम हुई है और बर्फ जल्दी पिघल रही है। कम बर्फ वाले ग्लेशियर जब सूरज की रोशनी के सीधे असर में आते हैं तो वे ज्यादा तेजी से पिघलने लगते हैं। अब धरती बचाने की जिम्मेदारी हम सबको लेनी होगी। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सीमित करना होगा। जो लोग पहाड़ों में पर्यटन के लिए जाना चाहें, उनका रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होना चाहिए। उनकी संख्या भी सीमित होनी चाहिए। अगर समय रहते कुछ जरूरी फैसले नहीं लिए तो भविष्य में प्राकृतिक आपदाएं और ज्यादा तबाही मचा सकती हैं।