बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी ने अपने प्रवचन में कहा कि जैसे फूल यह नहीं कहता कि मैं सुगंधित हूं, लेकिन हवा उसकी सुगंध को फैलाती है, वैसे ही मनुष्य की योग्यता, विनम्रता, सेवा भावना, उदारता उसके गुणों को समाज और राष्ट्र में प्रचारित कर देते हैं।
गुणों की पूजा जहां होती है, वहां दुर्बलता को कभी आश्रय नहीं मिलता। गुणी सर्वत्र पूजा व प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। स्वयं के लिए तो संसार में सभी जीते हैं, लेकिन ऐसे गुणी व्यक्ति विरले होते हैं, जो मानवता के लिए जीते हों। मानवता का गुण ऐसा गुण है, जो सारी महानताओं को अपनी और आकर्षित कर लेता है।
मानवता के अभाव में महानता की कोई परिकल्पना नहीं की जा सकती। सत्ता और समृद्धि जीते-जी सम्मान दिलाती है, तो त्याग और तप मरणोपरांत भी सम्मान दिलाते हैं। दोनों में एक बडा अंतर यह है कि एक सम्मान में स्वार्थ की दुर्गन्ध होती है, वहीं दूसरे सम्मान में नि:स्वार्थ श्रद्धा की गहरी सुगंध होती है।
सम्मान तो दोनों पाते हैं लेकिन उसकी गुणवत्ता में अंतर होता है। व्यक्ति जब तक सत्तासीन है, किसी पद पर है, वह काफी सम्मान पाता है लेकिन जब कुर्सी से उतर जाता है, तो सारा सम्मान बदल जाता है।
आचार्यश्री ने कहा कि त्यागी-तपस्वियों के सम्मान में श्रद्धा से सिर झुकता है। इस सत्य को समझ लेना आज की आवश्यकता है। मानव सभ्यता जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी मानवता की महत्ता भी है। आरंभिक काल से ही ऋषिमुनि, संत, महापुरुष आदि मानवता के महत्व को रेखांकित करते रहे हैं। अलग-अलग धर्मों में भी मानवता की आवश्यकता ही प्रतिपादित की गई है।
सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी,साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।