नए भारत के निर्माण का रोडमैप

चोल राजाओं का प्रभाव विदेशों तक था

अगर विकसित राष्ट्र बनाना है तो एकता पर ज़ोर देना होगा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु के गंगै-कोंडचोलपुरम मंदिर में आदि तिरुवथिराई महोत्सव के दौरान अपने संबोधन से देशवासियों को उस इतिहास से अवगत कराया है, जिस पर सबको गर्व होना चाहिए। कई लोगों को तो पहली बार पता चला होगा कि चोल राजाओं का प्रभाव श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण-पूर्व एशिया तक था। वहां के प्राचीन मंदिरों, स्मारकों, मठों और अन्य इमारतों पर इसकी स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। चोल साम्राज्य को भारत के स्वर्णिम युगों में यूं ही शामिल नहीं किया जाता। उस दौरान भारत का वैभव बढ़ा, शक्ति भी बढ़ी। जब कभी स्वर्णिम युग की बात होती है तो कुछ इतिहासकारों ने जानबूझकर उन विदेशी आक्रांताओं का गुणगान किया, जिन्हें न तो भारतीय चिंतन एवं दर्शन परंपरा का ज्ञान था और न ही उन्होंने स्थापत्य कला के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य किया था। वे भारतीय वास्तुकारों, शिल्पियों और श्रमिकों की उपलब्धियों को ही अपने खाते में शामिल करते गए। आज भी कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि 'फलां बादशाह कितने दूरदर्शी थे, जिन्होंने ऐसी इमारतें बनवाईं, जिन्हें देखने के लिए विदेशों से लोग आते हैं!' उन्हें पता ही नहीं कि जब बादशाह ने कोई इमारत बनवाई थी तो आजकल की तरह पर्यटन की कोई अवधारणा नहीं थी और उनका मकसद अपना प्रचार करना था। इस ग़लत-फ़हमी को भी दूर करने की जरूरत है कि विदेशी आक्रांताओं के आने से पहले यहां कोई समृद्ध स्थापत्य कला नहीं थी। जो ऐसा कहते हैं, उन्होंने भारत के वे प्राचीन मंदिर देखे ही नहीं, जो पत्थरों को तराश कर बनाए गए थे। उनके स्तंभों, मंगल प्रतीकों, प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्य होता है।

कला और अध्यात्म के प्रति हमारे पूर्वजों का महान प्रेम ही था, जो मंदिरों और दिव्य प्रतिमाओं का निर्माण करते रहे। भले ही उन पर विदेशी आक्रांताओं ने जुल्म किए, मंदिर तोड़े, लेकिन वे दोबारा उनका निर्माण करते गए। उन्होंने भिन्न आस्था के उपासना स्थलों का भी सम्मान किया। केरल से कश्मीर तक इसके प्रमाण मिल जाएंगे, लेकिन बामियान में महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं और ध्यान केंद्रों को बर्दाश्त नहीं किया गया। पीओके में शारदा पीठ को बर्दाश्त नहीं किया गया। खैबर पख्तूनख्वा, सिंध, बलोचिस्तान में मठों और मंदिरों को बर्दाश्त नहीं किया गया। जो मनगढ़ंत इतिहास लिखकर सिर्फ यही साबित करते रहना चाहते हैं कि हम विदेशी आक्रांताओं के हाथों पराजित होते रहे, उन्हें चोल साम्राज्य का इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए। लोकतंत्र के साथ ब्रिटेन के मैग्नाकार्टा का जिक्र तो सभी करते हैं, लेकिन चोल साम्राज्य में कुडावोलई अमईप का जिक्र कौन करता है, जिसके जरिए लोकतांत्रिक पद्धति से चुनाव होते थे? इतिहास की किताबों में इस बात का वर्णन बहुत पढ़ने को मिलता है कि ब्रिटेन की नौसेना बहुत शक्तिशाली थी, लेकिन राजराजा चोल की नौसेना के बारे में कितने इतिहासकारों ने लिखा है, जिसे राजेंद्र चोल ने शक्ति और पराक्रम के नए शिखर तक पहुंचा दिया था? उन्होंने व्यापारिक उन्नति के महत्त्व को समझते हुए समुद्री मार्गों का विस्तार किया, जो भारतीय कला और संस्कृति के प्रचार के वाहक बने थे। राजेंद्र चोल ने समुद्र पार सैन्य अभियानों में विजय प्राप्त की थी। श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार, इंडोनेशिया, थाईलैंड तक के शासक उनके शौर्य से परिचित थे। प्रधानमंत्री मोदी ने सत्य कहा है कि 'चोल साम्राज्य, नए भारत के निर्माण के लिए एक प्राचीन रोडमैप की तरह है ... यह हमें बताता है कि अगर विकसित राष्ट्र बनाना है तो एकता पर ज़ोर देना होगा ... हमें नौसेना को, हमारे सुरक्षा बलों को मजबूत बनाना होगा।' निस्संदेह शक्तिशाली भारत ही अपने स्वाभिमान की रक्षा कर सकता है। देश ने 'ऑपरेशन सिंदूर' में यह दिखा दिया है।

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