सोच-विचार और स्वभाव में बदलाव के लिए होती है धर्म की आराधना: आचार्यश्री विमलसागरसूरी

'हम दुर्गुणों को दूर करने और सद्गुणों से संपन्न बनने के सभी प्रयास करें'

तपस्वियों की पैदल शोभायात्रा का हुआ आयोजन

गदग/दक्षिण भारत। स्थानीय राजस्थान जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में यहां चल रही सोलह दिवसीय कषाय जय तप साधना के प्रतिज्ञा समारोह में जैनाचार्य विमलसागरसूरीजी ने कहा कि धर्म की आराधना या आराध्य की उपासना मात्र पूजा-पाठ और विधि-विधान के लिए ही नहीं होती, जीवन के परिवर्तन के लिए होती है। जरूरी है कि हम दुर्गुणों को दूर करने और सद्गुणों से संपन्न बनने के सभी प्रयास करें। सात्विक जीवन जीएं। 

आचार्यश्री ने कहा कि जैन साहित्य में क्रोध, अभिमान, माया और लोभ को कषाय कहा गया है। इनका अंतहीन संसार है। जितना इन्हें बढ़ाओ, वे फलते-फूलते रहते हैं। फिर धीरे-धीरे ये हमारे स्वभाव में गहरे उतर जाते हैं। इसी तरह सोच-समझकर जितना इन्हें घटाओ, ये क्षीण भी हो सकते हैं। ज्यों-ज्यों ये बढ़ते हैं, जीवन दुःख और समस्याओं में उलझता जाता है। 

रोग, शोक, भय, चिंता, सब इन कषायों की उपज हैं। इनको कम करना ही आध्यत्मिक साधना है और इन्हें पूरी तरह नष्ट कर देना साधना की सिद्धि। ये चारों दुर्गुण व्यवहारिक जीवन में भी मनुष्य को बहुत परेशान करते हैं। इनसे फायदा तो कुछ नहीं होता, नुकसान बहुत होता है। 

धर्मशास्त्र कहते हैं कि क्रोध को शांति और समत्व से, अभिमान को विनम्रता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीता जा सकता है। इस प्रकार धर्म की आराधना और आध्यात्मिक साधना का प्रारंभिक स्वरूप यही है कि हम अपने जीवन में शांति, समता, नम्रता, सरलता और संतोष भाव का अधिक से अधिक विकास करें। 

इससे पूर्व कच्छी दशा ओसवाल पार्श्वनाथ जिनालय से तपस्वियों की पैदल शोभायात्रा का भव्य आयोजन हुआ जिसमें तीन सौ पचपन तपस्वी और बड़ी संख्या में श्रद्धालुगण शामिल हुए। गणि पद्मविमलसागरजी ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए आगे के आयोजनों की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की।

जैन संघ के अध्यक्ष पंकज बाफना ने बताया कि रविवार से यहां पंद्रह उपवास की सामूहिक साधना प्रारंभ हो रही है। कुछ तपस्वी यहां बड़ी तप साधना में जुड़े हैं। कषाय जय तप के साधकों के लिए रविवार दोपहर को सामूहिक सांझी-भक्तिगीतों का भव्य आयोजन किया गया है।

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