बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी ने सोमवार को अपने प्रवचन में जैन शासन में तप और धर्म के महत्व को बताया।
उन्होंने कहा कि वीतराग परमात्मा ने कहा है कि तप के सेवन से ही देह की ममता का त्याग, रसनाजय व कषायजय से कर्म क्षय होता है। कर्मक्षय से आत्मा शुद्ध बन अजरामर मुक्ति प्राप्त करती है। देव, ममत्व और त्याग अनादि काल से संसारी आत्मा को स्वदेह पर अत्यंत ममत्व रहा है।
अत्याधिक राग के कारण आत्मा अनेक पापाचरण करती हैं। स्वदेह में आत्म बुद्धि के कारण मिथ्यात्व से ग्रस्त आत्मा देह की पुष्टि के लिए हिंसा व अहिंसा का विचार नहीं करती।
उन्होंने कहा कि सदगुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती है,आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है और आत्मा मिथ्यात्व रोग से मुक्त बनती है। सम्यग तप से आत्मा देह के नाश के बावजूद दुख का अनुभव नहीं करती।
उन्होंने कहा कि ममता के त्याग के बिना आत्म सुख का संवेदन तथा सम्यकतप के बिना देह की ममता का त्याग भी संभव नहीं है। तप धर्म के अभ्यास से व्यक्ति सहनशील बनता है और देह के दुखों को हंसते हुए सहन करता है।
आचार्यश्री ने कहा कि तप धर्म का दूसरा उद्देश्य इंद्रियजय है। साधक विभिन्न तपों के जरिए भोजन के विविध रसों का त्याग करता है। अभ्यास से धीरे धीरे रसेन्द्रियों पर विजय पा सकता है। पांच इंद्रियों में रसेन्द्रिय ही सबसे बलवान है।
उन्होंने कहा कि आहार की आसक्ति के त्याग के बिना इन्द्रिय विजय नहीं पाई जा सकती। अपनी इच्छाओं को वश में रखना ही सबसे बड़ा तप है। स्वाध्याय और ध्यान को उत्कृष्ट तप कहा गया है। ज्ञान और ध्यान के बिना मुक्ति संभव ही नहीं है।
आचार्यश्री को उत्तराध्ययन सूत्र बोहराने का लाभ पारसमल शुभम बम्बोरी परिवार एवं पेथडशाह चरित्र बोहराने का लाभ सुरेशकुमार जितेश कुमार दक परिवार व साध्वीश्री तत्वत्रयाश्रीजी को प्रशमरति ग्रंथ बोहराने का लाभ जयंतीलाल श्रीश्रीमाल परिवार सहित अनेक लाभार्थियों ने लाभ लिए।