समाज में शालीनता के साथ रक्षात्मकता और आक्रामकता दोनों चाहिएं: आचार्यश्री विमलसागरसूरी

'उदासीनता, कर्तव्यहीनता और विभक्त मानसिकता के कारण समाज व धर्म का भारी नुकसान हुआ है'

'समाज के अस्तित्व और गौरव को बचाने के लिए कुछ नियम होते हैं'

गदग/दक्षिण भारत। रविवार को राजस्थान जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में पार्श्व बुद्धि वीर वाटिका में पहली जागरण सेमिनार को संबोधित करते हुए जैनाचार्य विमलसागरसूरीजी ने कहा कि पिछले सौ वर्षों में उदासीनता, कर्तव्यहीनता और विभक्त मानसिकता के कारण समाज व धर्म का भारी नुकसान हुआ है।

रक्षात्मकता और आक्रामकता छोड़ देने के कारण अल्पसंख्यक जैन समाज का जगह-जगह शोषण हो रहा है। राजनीति, प्रशासन और व्यवहार में उसे दबाने के भरपूर प्रयास होते हैं। साधुवर्ग और गृहस्थवर्ग में नेतृत्व की धार कमजोर हुई है। संप्रदायों, समुदायों और वर्गों में विभक्त समाज की शक्ति कम हुई है। ऐसी स्थिति में किसी संप्रदाय या वर्ग विशेष के बड़े-छोटे या शक्तिशाली होने का भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। संगठित सामूहिक प्रयास ही हमेशा सफलता दिलाते हैं। अकेले शेर का तो लकड़बघे भी मिलकर शिकार कर लेते हैं।

आचार्य श्री ने कहा कि समाज के अस्तित्व और गौरव को बचाने के लिए कुछ नियम होते हैं, ऐसे नियम जो समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को मानने होते हैं। यदि लोग ऐसा नहीं करते हैं तो उस समाज का अंत निश्चित होता है। इसलिए समाज में धन-वैभव और अधिक सुख-सुविधाओं का अधिक बोलबाला नहीं होना चाहिए मौजमस्ती, सुख-सुविधा तथा आराम पसंद समाज धीरे-धीरे मनस्वी, अकर्मण्य, डरपोक, निर्णयविहीन और संघर्षहीन बन जाता है। वह अपनी रक्षात्मकता और
आक्रामकता दोनों को गवां देता है।

एक दिन ऐसे समाज की शालीनता भी दांव पर लग जाती है। प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार समस्याओं व संकटों का सामना करने के लिए समाज के पास सही सोच, साहस, संगठन, सहयोगवृत्ति, निष्ठभावना और मजबूती चहिए।

आचार्यश्री ने कहा कि साधुओं की संख्या बढ़ने या बड़े-बड़े चातुर्मासों और अनुष्ठानों के आयोजनों से कुछ नहीं हो जाएगा। महत्वपूर्ण यह है कि बड़े साधु और वरिष्ठ श्रावकवर्ग समाज को किस दिशा में ले जाते हैं। पूजा-अनुष्ठान, सामायिक, प्रतिक्रमण, तपस्या और अन्य धार्मिक आयोजनों से समाज या धर्म की सुरक्षा नहीं हो पाएगी। उसके लिए तो निष्ठापूर्वक दीर्घकालीन योजनाएं बनाकर, उन पर ठोस काम करना होगा। 

गदग के अलावा अनेक गांवों-शहरों से भी युवा सेमिनार में सहभागी बने। गणि पद्म विमलसागरजी ने सेमिनार की संयोजना की। अंत में आयोजित परिचर्चा में युवक-युवतियों ने खुलकर अपने विचार रखे। जैन संघ के अध्यक्ष पंकज बाफना ने बताया कि सोलह दिवसीय कषाय जय तप में करीब चार सौ साधक जुड़े हैं।

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