होसपेट/दक्षिण भारत। मंगलवार को आदिनाथ जैन धर्मशाला में विशाल संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं को मार्गदर्शन देते हुए जैनाचार्यश्री विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि जिस प्रकार भारत कृषि प्रधान देश है, उसी प्रकार यह ऋषि प्रधान देश रहा है।
श्रमणों और संतों की यहां प्राचीन परंपराएं रही हैं। जब सूखा पड़ता है, कृषि नहीं होती तो अनाज के अभाव में भूख से हजारों-हजारों लोग बेवक्त मर जाते हैं। उसी तरह जहां साधु-संतों के रूप में गुरु नहीं होते, वहां धर्म और संस्कारों की परंपरा भी दम तोड़ने लगती है।
इतिहास साक्षी है कि जहां-जहां साधु-संतों का आवागमन नहीं रहा, वे क्षेत्र आचरण और विचारों से पतित, शुष्क तथा धर्महीन बन गए। साधु-संत दूरदराज के इलाकों तक विचरण कर मनुष्य की शुष्क मनोभूमि पर धर्म का बीजारोपण करते हैं। वे अपने आचरण और विचारों से मानवता को ऊष्मा व ऊर्जा प्रदान करते हैं।
भारतीय समाज में ऐसे हजारों-लाखों साधु-संतों और श्रमणों का गौरवशाली इतिहास है। श्वेताम्बर जैन आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वर भी एक ऐसा ही यशस्वी नाम है।
जैनाचार्य ने कहा कि गुजरात के विजापुर में एक किसान पटेल परिवार में महाशिवरात्रि के दिन आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी का जन्म हुआ था। उन्होंने जैन दीक्षा अंगीकार कर ध्यान-योग, मंत्र और विद्याओं की अद्भुत साधना की थी। मात्र 24 वर्ष के अपने साधु जीवन में उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषा में 135 ग्रंथों की रचना की थी।
उन्होंने अनेक भविष्यवाणियां लिखी थीं, जो सभी कालांतर में सत्य सिद्ध हो गईं। आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी ने राष्ट्रीय जागरण, स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक उत्कर्ष, वैचारिक क्रांति, कुरीतियों के उन्मूलन, संस्कारों के सिंचन, बलिप्रथा निषेध, कन्याओं की पढ़ाई और मानवता की रक्षा के लिए जीवनभर निरंतर काम किए।
गणि पद्मविमलसागरजी ने कहा कि बड़ौदा रियासत के तत्कालीन राजा सयाजीराव गायकवाड़ जैनाचार्य के परम भक्त थे। उनके ग्रंथ कर्मयोग के लिए बालगंगाधर लोकमान्य तिलक ने उन्हें पत्र लिखकर अभिनंदित किया था।
इस अवसर पर मुनि वैभवरत्नविजयजी ने कहा कि सही आचार-विचार और व्यवहार से ही हम उन्नति की राह प्रशस्त कर सकते हैं। धर्म की बातों को व्यवहारिक जीवन में लागू करना ही धार्मिक होने का तात्पर्य है। इस अवसर पर आसपास के अनेक क्षेत्रों के श्रद्धालु उपस्थित थे।