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घटता प्रेम, टूटते परिवार

न तो किसी को दबाया जाए, न किसी को सताया जाए

घटता प्रेम, टूटते परिवार
जो पीड़ित हो, उसके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए

भाजपा के राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा ने झूठे आरोपों का सामना करने वाले पुरुषों को पर्याप्त कानूनी और भावनात्मक समर्थन दिए जाने की मांग कर उनकी पीड़ा को आवाज दी है। प्राय: पीड़ित और शोषित महिलाओं के समर्थन में तो हर नेता एवं राजनीतिक दल आवाज उठाते हैं, जरूर उठानी चाहिए, लेकिन जब पीड़ित और शोषित कोई पुरुष होता है, तब न तो नेता उसके समर्थन में खड़े होने की इच्छाशक्ति दिखाते हैं और न उसकी पीड़ा किसी राजनीतिक दल के लिए मुद्दा होती है! ये दोहरे मापदंड क्यों? पीड़ित महिला भी हो सकती है, पीड़ित पुरुष भी हो सकता है। जो पीड़ित हो, जिसके साथ ज्यादती हुई हो, उसे समर्थन मिलना चाहिए, उसके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। दुर्भाग्य से कथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग महिलाओं और पुरुषों को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में चित्रित कर रहा है। ऐसी सोच परिवारों को तोड़ रही है। महिला और पुरुष के बीच प्रतिद्वंद्विता नहीं, बल्कि सहयोग की भावना होनी चाहिए। अगर दोनों के बीच प्रतिद्वंद्विता और शत्रुता की भावना पैदा हो गई तो परिवार को बिखरने में देर नहीं लगेगी। हमें अपने आदर्श पश्चिम की 'परिवारतोड़क' विषैली विचारधाराओं में नहीं ढूंढ़ने चाहिएं। हमारे आदर्श भगवान शिव - माता पार्वती, प्रभु श्रीराम - माता सीता, भगवान विष्णु - माता लक्ष्मी ... होने चाहिएं। महिला और पुरुष, दोनों की ही रचना ईश्वर ने की है, दोनों को ही विशेष गुण दिए हैं। इनमें से कोई 'छोटा' नहीं है। दोनों ही अपनी जगह बड़े हैं। इसलिए न तो किसी को दबाया जाए, न किसी को सताया जाए। दोनों के ही अस्तित्व का सम्मान होना चाहिए।

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत समेत दुनियाभर में महिलाओं पर अत्याचार हुए हैं। उन्हें न्याय दिलाने के लिए कई कानून बनाए गए, जिनकी जरूरत थी। वहीं, इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ मामलों में उन कानूनों का दुरुपयोग हुआ है। दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, छेड़छाड़, दुष्कर्म जैसे अपराध महिलाओं के साथ हुए हैं, हो रहे हैं, लेकिन किसी निर्दोष पर झूठे आरोप लगाकर उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर देना कहां तक उचित है? हाल में बहुचर्चित अतुल सुभाष मामले का वीडियो देखकर कई नौजवान ब्याह-शादी से तौबा कर चुके हैं! हमारे देश में विवाह एक पवित्र व्यवस्था मानी जाती है। यह परिवार का आधार है। अगर परिवार में ही दरार आ जाएगी तो समाज का भविष्य क्या होगा? समाज के छिन्न-भिन्न होने के बाद कोई देश सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी बन गया तो वह कामयाबी किस काम की? आज कई परिवारों की हालत यह है कि सुख-सुविधाओं के तमाम साधन होने के बावजूद वहां शांति नहीं है, मधुरता नहीं है। परिवार में उच्च शिक्षित लोग हैं, लेकिन रिश्तों में तालमेल कायम नहीं हो रहा है! यह समस्या क्यों पैदा हुई? जब रिश्तों के बीच अहंकार, गलतफहमी, ईर्ष्या और टकराव जैसे अवरोधक आ जाते हैं तो उनमें कड़वाहट भर जाती है। लोग विवाह के लिए बात पक्की करने से पहले चरित्र, सूझबूझ, व्यवहार और विवेक के बजाय धन-दौलत, बहुत ऊंची नौकरी, सुंदरता को हद से ज्यादा महत्त्व देने लगे हैं। परिवारों के टूटने की एक वजह यह भी है। बाकी कसर कुछ घरफोड़ू धारावाहिकों और सोशल मीडिया ने पूरी कर दी। हमारे जीवन में इनका दखल इस कदर बढ़ता गया कि आज घर-घर में वे समस्याएं पैदा हो रही हैं, जो दो दशक पहले देखने-सुनने को ही नहीं मिलती थीं। इनका समाधान सिर्फ कानूनों से नहीं हो सकता। हालांकि कानूनों की जरूरत हमेशा रहेगी। हमें अपने परिवारों में भारतीय मूल्यों एवं आदर्शों को पुन: स्थापित करना होगा। धन एक हद तक जरूरी है। यह परिवार की सुख-शांति का विकल्प नहीं हो सकता। परिवार उसी सूरत में सुखी होंगे, जब रिश्तों में प्रेम होगा। इसके लिए किसी को 'छोटा' या महत्त्वहीन साबित करने की जरूरत नहीं है।

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